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________________ ध्यान का शास्त्रीय निरूपण १२१ इससे स्पष्ट है कि प्रशस्त ध्यानों की अपेक्षा अप्रशस्त ध्यानों के विषय में शास्त्रीय विवरण काफी कम है । सम्भवतः इनकी बहिर्मखता ही इनकी अप्रशस्तता का कारण है। तत्वार्थ सूत्र में ५ सूत्रों में आतंध्यान, एक सूत्र में रौद्रध्यान, दो सूत्रों में धर्म-ध्यान तथा सात सूत्रों में शुक्ल-ध्यान का विवरण मिलता है। इसमें उनके भेद, परिभाषा तथा अधिकारी बताये गये हैं। ज्ञानार्णव में, अवश्य, इन पर स्वतन्त्र अध्याय दिये गये हैं। ये मानव को उत्तरोत्तर आध्यात्मिक प्रगति को निरूपित करते हैं। इस विवरण की एक विचार योग्य विशेषता यह है कि जहाँ आर्तध्यान के अधिकारी ४-६ गुणस्थानी होते हैं, वहीं रौद्र-ध्यान के अधिकारी ४-५ गुणस्थानी ही होते हैं। चतुर्भेदी आर्त-ध्यान नितान्त व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति या पीड़ा को दूर करने के लिये होता है। इसमें कषाय, दुःख व प्रमाद अधिक होता है । इसके विपर्यास में, चतुर्भेदी रौद्र-ध्यान में कुटिलता, पापाचार एवं क्रूरकर्म सम्भावित हैं। रौद्रता क्रोध, उत्तेजना एवं आवेश का प्रतीक है । यह व्यक्तिगत भी हो सकता है और व्यक्ति भिन्न भी हो सकता है । इसे भी ४-६ गुणस्थानी माना जाना चाहिए, पर पूज्यपाद और अकलंक ने व्याख्या दी है कि संयमी (चाहे वह प्रमत्त ही क्यों न हो) के रुद्रता नहीं हो सकती । इस स्थिति में मुझे लगता है कि गुणस्थान के आधार पर रौद्र-ध्यान को प्रथम ध्यान मानना चाहिए। दिगे ने इस चर्चा पर मौन रखा है। धर्म ध्यान आन्तरिक विकास की प्रथम सराहनीय सीढ़ी है । इसमें ध्यान की प्रक्रिया पूर्व ध्यानों के अनुसार होती है, पर इसमें एकाग्रता के लक्ष्य, ध्येय भिन्न होते हैं। इसके आलम्बन सात्विक होते हैं। इनके विवरण सारणी ४ में दिये गये हैं । इस ध्यान में गुरुवाणी में श्रद्धा, कुत्सित विचारों या अवस्थाओं के नाश के प्रति व्यग्रता, अशुभ प्रवृत्तियों या कर्मों के प्रति निरुद्धता और संसार के विशिष्ट आकारों के प्रति विचारणा की वृत्ति जागृत होती है। धर्म-ध्यानी में मैत्री, करुणा, मदिता व उपेक्षाभाव की मनोवृत्ति का जागरण आवश्यक है। इसमें अन्दर-बाहर की प्रेक्षाएँ की जाती हैं। इसमें पिण्ड (शरीर), पद (अक्षर), रूप एवं रूपातीत ध्येयों पर मन को स्थिर करने का अभ्यास किया जाता है। इससे आत्म-शक्ति का संकेन्द्रण होता है। वर्तमान में भावों की शुद्धि के लिये प्रचलित लेश्या, रंग या वर्ण-संकेन्द्रित ध्यान की प्रक्रिया रूपात्मक ध्यान के अन्तर्गत ही माननी चाहिए। शास्त्रों में इस प्रक्रिया का विशेष विवरण नहीं है । इस ध्यान में क्रमशः स्थूल ध्येयों से सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतर ध्येयों पर एकाग्रता का अभ्यास करने से व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर आनन्दानुभूति करने लगता है । यह ध्यान शुभ होता है, शुभतर शुक्ल ध्यान की ओर प्रेरित करता है। ____ शुक्ल ध्यान आन्तरिक शुद्धि एवं निर्मलता का प्रतीक है। यह नितान्त अन्तर्मुखी और आन्तरिक प्रक्रिया है । यह अन्तःशक्ति के अनन्त-रूप का दर्शन कराता है और साधना के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने को अन्तिम सीढ़ी है । इसके अन्तर्गत मन, वचन व शरीर को सभी वृत्तियाँ निरुद्ध होकर रूपातीत ध्येय पर एकाग्रता उत्पन्न होती है। इससे अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीयं की अनायास उपलब्धि होती है। इसके ध्येय के रूप में धर्म के विविध रूपों की निराकार वत्तियाँ होती है। यह ध्यान श्रेष्ठतम बलशाली शरीर तथा ज्ञान के धनी ही कर सकते हैं । यह प्रायः निरालम्बन होता है । इसके चार भेदों में से दो का अभ्यास छद्मस्थ ज्ञानी (१२वें गुणस्थान तक) भी कर सकते हैं, पर अन्तिम दो भेदों का अभ्यास केवली ही कर सकते हैं। इसमें वितकं और वीचार (विचारणा और अक्षर ध्यान)-दोनों क्रमशः समाप्त हो जाते हैं और अन्त में सभी प्रकार की क्रियाओं से मुक्ति होकर चरम सुख की अनुभूति होती है। शुपमा शुक्ल ध्यान के समान धर्म-ध्यान के भी चार भेद माने गये हैं। इन्हें विस्तृत कर दस भी माना जाता है । इन्हें संक्षिप्त करने पर वाह्य और आध्यात्मिक अथवा व्यवहार और निश्चय के रूप में दो भेद माने जाते हैं। परावलम्बी, शरीर एवं वचन की क्रियाएं वाह्य एवं व्यावहारिक होती हैं और मानसिक चिन्तन या एकाग्रता आध्यात्मिक या निश्चयमुखी होती हैं । इस ध्यान की सिद्धि के लिये गुरु-उपदेश, श्रद्धा, अभ्यास तथा मन की स्थिरता अत्यन्त आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211222
Book TitleDhyan ka Shastriya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Meditation Yoga
File Size2 MB
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