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________________ १२४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड के अनुसार वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्म-कथा, सामायिक एवं सद्धर्मतत्व समाहित होते हैं । इनसे अन्तर्मुखी दृष्टि जागृत होती है। ज्ञानार्णव में चार अपूर्व ध्येय भी बताये गये हैं- पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत । इनका विस्तृत वर्णन भी है। इनमें शरीर, वर्ण (मंत्र, मुद्रा, मंडल आदि), आत्मा, जिन, मुक्ति, सिद्ध के लौकिक-अलौकिक रूपों का ध्यान समाहित है । इनके माध्यम से आत्मतत्व या अन्तर्मुखी ध्येय ही ध्यान के विषय होते हैं । इन पर चित्त को स्थिर करने से समदृष्टि, आनन्दमयता एवं अन्तःशक्ति सम्पन्नता आतो है, जो हमारे शरीर के चारों ओर विद्यमान आभा मण्डल को परिवर्तित कर जीवन को सुखमय बनाती है । (य) ध्यान का फल विकास करता है । कुछ विशाल भंडार है । यह लौकिक / अलौकिक कार्य ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति स्वयं में अव्यक्त रूप से विद्यमान अनेक सात्विक गुणों का ही समय के अभ्यास से यह अनुभव होने लगता है कि व्यक्ति में परमात्मा के समान ही शक्ति का शक्ति ही सुखानुभूति कराती है । यहो अन्तःशक्ति है । इसके कारण ही व्यक्ति में अनेक प्रकार के करने की क्षमता आती है। यह शक्ति हो उसमें विरागता, समदृष्टि, अशुभ प्रवृत्तियों की उपेक्षा आदि मानव जाति के नैतिक दृष्टि से बढ़ाने वाले गुणों की प्रतीक है। सैद्धान्तिक दृष्टि से ध्यान पूर्वकृत कर्मों को नष्ट कर व्यक्ति को अकर्मता की ओर ले जाता है और उसे संसार को सुन्दरतम बनाने की ओर प्रेरित करता है। वस्तुतः ध्यान व्यक्ति को समष्टि में विलीन करता है और मुक्तिमार्ग प्रशस्त करता है। ध्यान से नियमित शरीर, स्थिर नेत्र, शुद्ध अन्तःकरण, निर्मोहता एवं तेजस्विता प्राप्त होती है । ये सभी गुण उत्कृष्ट आनन्द के साधन हैं । मन्त्र एवं वर्णों के ध्यान से रोग-विजय एवं वचनमाहात्म्य प्रकट होता है । 1 (र) ध्यान की कालावधि जैन शास्त्रों में ध्यान का उत्तम काल एक अन्तर्मुहूर्त या ४८ मिनट बताया गया है । साधारण छद्मस्थ एक ध्येय पर इससे अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते । यदि वे ऐसा करते हैं, तो या तो ध्येय रूपान्तरित हो जावेगा या ध्यानान्तर हो जावेगा। इससे इन्द्रियों का उपधात भी सम्भव है । योग दर्शन में ध्यानाभ्यास के लिये इस प्रकार की कोई कालावधि नहीं है। फिर भी, सत्यानन्द सरस्वती गृहस्थों के लिये १० मिनट का न्यूनतम ध्यान-समय मानते हैं । वस्तुतः यह समय-सीमा ध्यानाभ्यास को कोटि एवं ध्याता की श्रेणी पर निर्भर करती है । विभिन्न पद्धतियों में ध्यान का तुलनात्मक निरूपण प्रायः सभी भारतीय पद्धतियों में ध्यान के द्वारा अन्तर्मुखो विकास माना गया है। प्राचीन ग्रन्थों (वेद, गीता, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, विसुद्धि मग्गो, भगवती आदि) में इस सम्बन्ध में स्फुट विवरण प्राप्त होते हैं। धीरे-धीरे इस पद्धति का पूर्ण विकास हुआ और उत्तरवर्ती समय में ध्यान पर विशिष्ट ग्रन्थ लिखे गये। इनसे पता चलता है कि जैन और बौद्ध पद्धतियाँ योग-दर्शन से पर्याप्त प्रभावित हुई हैं । उन्होंने कालान्तर में योग के अष्टांगों को किसी-न-किसी रूप में समाहित तो किया ही है, उसके पारिभाषिक शब्दों को भी स्वीकार किया है । सारणी ५ में इन तीनों परम्पराओं की मुख्य मान्यताओं का तुलनात्मक संक्षेपण किया गया है। इससे स्पष्ट है कि जैन पद्धति की अपनी कुछ विशेषताएं हैं, जो अन्य पद्धतियों में निरूपित नहीं हैं, यद्यपि वे आनुषंगिकतः मान्य होनी चाहिए : (i) ध्यान शुभ और अशुभ- दोनों प्रकार के हो सकते लिया जाता है । Jain Education International । अन्य पद्धतियों में ध्यान का अर्थ शुभरूप में ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211222
Book TitleDhyan ka Shastriya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Meditation Yoga
File Size2 MB
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