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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्व / १५७
सम्यक्त्व कहलाता है ।
अब एक और दुष्टान्त लीजिए ।
एक व्यक्ति है। वह जहाज में बैठकर जा रहा है। इसका लक्ष्य भारतवर्ष नहीं है, कभी उसने भारत का नाम भी नहीं सुना। अचानक ही समुद्र प्रशांत हो जाता है, ऊंची-ऊंची लहरें उठने लगती हैं, जहाज लहरों पर गेंद की तरह उछलने लगता है, प्राण बचाने के लिए वह रक्षक पेटी ( Safety Belt) कमर से बांध लेता है ।
वाहन टूट जाता है, वह ग्रथाह डूबता नहीं, ऊँची-नीची लहरों के थपेड़े एक ही भावना है-किसी तरह इस मुक्ति मिले। नाक, मुंह, कान, सारे शरीर में त्राण पाना चाहता है ।
समुद्र में गिर जाता है, किन्तु रक्षक पेटी के कारण खाता हुआ समुद्र तल पर तैरता रहता है, मन में समुद्र से बाहर निकल जाऊं, इस खारे पानी से मुझे नमक भर गया है। बड़ा दुःखी है, किसी तरह
अचानक ही एक जोरदार लहर आती है और उसे भारत की शस्य श्यामला आर्यभूमि पर फेंक जाती है ।
निसर्गज सम्यक्त्व प्राप्ति का यह भौतिक उदाहरण है ।
संसार दुःख से संतप्त मानव जब मुक्ति प्राप्ति की तीव्र भावना करता है तो भी चेतना केन्द्रों में, शरीर के आन्तरिक भागों में वही प्रक्रिया होती है जो श्रधिगमज सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए गुरुदेव के निर्देशन में समझदार शिष्य करता है ।
दोनों ही सम्यक्त्वों में धान्तरिक कारण समान हैं-भावना के तीव्र प्रवाह का वेतनाकेन्द्रों में होकर गुजरना और कर्म-ग्रन्थों की भाषा में दर्शन-प्रतिबन्धक कर्म-प्रकृतियों का उपशमन अथवा क्षय होना और परिणाम भी समान हैं, श्रात्मानन्द की - श्रात्मा के स्वभाव की अनुभूति होना ।
बस, अन्तर इतना ही है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन में साधक बाह्य तैयारी नहीं करता, जबकि अधिगम के लिए वह बाह्य प्रयत्न भी करता है। एक दृष्टान्त द्वारा इसे यों समझ सकते हैं
एक नगर है। इसके चारों ओर ऊँची दीवार है। उसमें प्रवेश का एक ही द्वार है। चाहे नेत्र ज्योति वाला नगर में प्रवेश करना चाहे अथवा प्रज्ञाचक्षु, जाना दोनों को उसी द्वार से होगा ।
इसी प्रकार हमारा शरीर एक नगर है। नगर क्या पूरा लोक ही है। हम अभी तक उसके बाहर हो चक्कर लगा रहे हैं। हमारा मन और इन्द्रियों सभी की दौड़ बाहर की ओर ही है।
यदि हमें सम्यक्त्व प्राप्त करना है, शरीर में अवस्थित सच्चिदानन्दघन श्रात्मा का साक्षात्कार करना है, तो हमें अपने स्थूल शरीर में अवस्थित सूक्ष्म लोक की यात्रा करनी ही पड़ेगी, बहिर्मुखी प्रवाह को प्रस्तर्मुखी बनाकर चेतना केन्द्रों के मार्ग से ग्राम गवेषणा करनी ही होगी।
यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि सम्यक्त्वप्राप्ति के लक्ष्य वाला साधक ऐसा संकल्प नहीं
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आसनस्थ तम आत्मस्थ मम
तब हो सके आश्वस्त जम
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