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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
ही चारित्र मानने वाले आग्रहशील साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के व्यक्तियों की दृष्टि में बीच के२२ तीर्थंकर तथा उनके अनुगामी साधु-साध्वी शिथिलाचारी थे, या वे तीर्थंकर क्या शिथिलाचार के उपदेशक या पोषक थे?
गणधर गौतम स्वामी से भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य केशीस्वामी मिले, तब भी गणधर गौतम ने उन्हें तथा उनके साधुओं को शिथिलाचारी नहीं कहा। इससे यह स्पष्ट है कि केवल उक्त बाह्याचार, क्रियाकाण्ड तथा कतिपय स्थूल नियमोपनियमों के आधार पर से ही चारित्र को शिथिल या उत्कृष्ट मानना या इसी आधार पर किसी साधु को उत्कृष्ट या हीन मानना साम्प्रदायिक उन्माद के सिवाय और कुछ नहीं है । ये बाह्य आचार या क्रियाकाण्ड अथवा परम्पराएँ द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के अनुसार बदलती रही हैं और भविष्य में भी बदलेंगी । ३६
समभावी साधक तथापि परपरिवाद
आत्मधर्म की साधना का मूल चारित्र ( भावचारित्र ) है। इसमें महत्व सिर्फ क्रियाकाण्डों या वाह्याचार का नहीं, स्वात्मभाव की परिणति का है । चारित्र समभाव या वीतराग भाव में है । जो मोहकर्म के क्षय या क्षयोपशम से होता है | अतः बाह्य विधि-विधानों से चारित्र को आत्म संयम को नापना ठीक नहीं है । कुछ महाशय तो अपने माने हुए परम्परागत बाह्य आचार-विचार से भिन्न समभावपोषक प्रणाली को देखते हैं तो तुरंत ही आगबबूला हो उठते हैं। वे अपने मुख से अथवा लेखनी से उन शान्त विरक्त समभावी साधकों के लिए भ्रष्टाचारी, भेषधारी पतित या धर्मभ्रष्ट, सम्यक्त्वभ्रष्ट आदि अनर्गल अपशब्दों और गालियों का प्रयोग करते रहते हैं । सूत्रकृतांग सूत्र में पर - परिभव एवं परनिंदक को संसार में परिभ्रमण का कारण बताया
है । ३७
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परनिन्दा - माया : जन्म-मरण के कारण
काश! ये लोग शान्तचित से विचार करें, महावीर के उपासक होने का दावा करने वाले ये व्यक्ति अपनी भाषासमिति का विचार करते और अपने जीवन के आन्तरिक पृष्ठों को पढ़ते । कठोर क्रियाकाण्ड एवं बाह्य नियमोपनियमों के पालन का अहंकार एवं दम्भ करते हैं, दूसरों को नीचा दिखाने एवं तिरस्कृत करने के लिए बाह्यक्रियाओं का प्रायः प्रदर्शन करते हैं उनकी कषायें तथा वासनाएँ उपशान्त नहीं, प्रत्युत अधिक उद्दीप्त होती हैं। ऐसे प्रदर्शन में प्रायः दम्भ, दिखावा और माया का सेवन होता है । आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ऐसे मायावी जीवन के लिए सचोट बात कही है- “जो मायावी है, सत्पुरुषों की निन्दा करता है वह अपने लिए किल्विषक भावना (पाप योनि की स्थिति) पैदा करता है । ३८ मायापूर्वक की गई क्रियाएँ आत्म कल्याण में सहयोगी नहीं बन पातीं । यदि आभ्यन्तर जीवन में ग्रान्थियाँ हैं तो उसका बाह्य त्याग यथार्थ में सम्यक् त्याग नहीं है । आगमकार स्पष्ट विधान करते हैं- “यदि कोई व्यक्ति नग्न रहता है, मास-मास भर अनशन करके शरीर को कृश कर डालता है, किंतु अंतर में माया एवं दम्भ रखता है, वह जन्म-मरण के अनन्त चक्र में भटकता रहता है ।
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भगवान् महावीर ने भी कहा है- “ केवल मस्तक मुंडा से या बाह्य वेष से अथवा क्रियाकाण्डों से कोई श्रमण नहीं हो जाता । समतायोग को अपनाने, जीवन में आनेवाली हर परिस्थिति में सम रहने वाला, समभाव रखने वाला ही श्रमण होता है । ' स्थानांगसूत्र अनुसार-शिरोमुंडन के साथ-साथ चार कषायों तथा पंचेन्द्रियविषयों का मुण्डन शमन रखने से वास्तविक मुण्डन होता है । ' अभिप्राय है, प्रत्येक कार्य (कर्म) करते हुए किसी प्रकार की आसक्ति, फलाकांक्षा, विचिकित्सा आदि का त्याग
सन्तुलन सममन
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भाव-मुण्डन का
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धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग
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