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जैन संस्कृति का आलोक
को कितना तूल दिया गया है? जरा तटस्थ बुद्धि से सोचने समझने का प्रयास करें तो यह बात स्पष्ट विदित हो जाती है कि परिग्रह पदार्थों, व्यक्तियों और वस्तुओं में नहीं, उन पदार्थों, व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति ममता- मूर्छा में है। भगवान् महावीर ने तथा आचार्य उमास्वाति
आदि ने मुर्छा को ही वस्ततः परिग्रह कहा है। अध्यात्मवेत्ता वास्तव में मूर्छा या ममत्व भाव को ही परिग्रह बताते हैं। निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। वस्तु ही क्यों, यदि शरीर, अन्य उपकरण तथा कर्म आदि पर भी यदि मूर्छा है तो वह भी परिग्रह है और मूर्छा नहीं है तो परिग्रह नहीं है। आशय यह है कि परिग्रह पदार्थ के होने, न होने पर अवलम्बित नहीं, वह अवलम्बित है – पदार्थ के प्रति ममता, मूर्छा एवं आसक्ति होने, न होने पर । ३५
सोडे से धोए या साबुन पाउडर से, इसमें क्या फर्क पड़ता है? दर्शनार्थ आने वाले बन्धुओं से आहारादि लेने, न लेने में पेन-बालपेन आदि से लिखने, न लिखने में भी उभयपक्षीय परम्परा चलती है। पत्रादि का अपने हाथ से लिखना भी मर्यादा भंग समझा जाता है, जब कि ऐसे साधक किसी गृहस्थ से लिखवाने में दोष नहीं मानते। अगर लिखने में दोष है तो लिखवाने में मर्यादाभंग का दोष क्यों नहीं लगेगा? आगमों में जिस कार्य को करने में पाप, दोष अपराध या मर्यादाभंग बताया है तो उसी कार्य को दूसरों से कराने तथा उस कार्य का अनुमोदन-समर्थन करने में भी पाप, दोष आदि कहा है, पुण्य या धर्म नहीं। इसी प्रकार हाथ-पैर का प्रक्षालन, केशलुंचन, विद्युत द्वारा चलित ध्वनिवर्धक यंत्र आदि का उपयोग इत्यादि छोटी-छोटी बाह्याचार की अनेक वाते हैं।
साधुता असाधुता का निर्णय?
बाह्य आचार पर से साधुत्व-असाधुत्व का झटपट निर्णय करने वाले लोग अपनी युगबाह्य जड़ स्थितिस्थापक नियमोपनियमों, परम्पराओं या बाह्य विधि-निषेधों पर से ही ऐसा अविचारपूर्वक निर्णय कर बैठते हैं। जैसे कोई दण्ड रखने में साधुत्व की मर्यादा मान रहे हैं, तो कोई मुखवस्त्रिका को लम्बी या चौड़ी रखने में। कुछ श्रमण वर्ग एक घर से एक बार आहार ग्रहण करना ही श्रमणाचार के अनुकूल बताते हैं तो कतिपय श्रमणवर्ग अवसर आने पर अनेक बार आहारादि लेना जरूरी समझें तो ले लेना भी, साध्वाचार के अनुकूल मानते हैं। कुछ महानुभाव वस्त्रादि का प्रक्षालन करने वाले मुनि को शिथिलाचारी
और मलिन वस्त्र वालों को उत्कृष्टाचारी या दृढ़ाचारी समझते हैं। कुछ साधक साबुन, पाउडर आदि से वस्त्र- प्रक्षालन को साधु मर्यादा-विरुद्ध समझते हैं और सिर्फ पानी से एवं सोडे आदि से धोने में उत्कृष्टता। जब कि उद्देश्य है; कपड़े की सफाई, फिर चाहे कोई यतनापूर्वक
शिथिलाचारी, उत्कृष्टाचारी का निर्णय कैसे?
भगवान् महावीर के पहले के तीर्थंकरों के युग में तथा भगवान् महावीर के समय में भी, एवं उनके निर्वाण .. के पश्चात् भी बाह्याचारों में द्रव्य क्षेत्र, काल, भावानुसार बहुत ही परिवर्तन हुए हैं। इस युग में भी हुए हैं और आगे भी होंगे। केवल बाह्याचार के आधार पर शिथिलाचार या उत्कृष्टाचार मान लेना या कहना कथमपि उचित नहीं है। यदि ऐसा माना जाएगा तो भगवान् अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक अचेल परम्परा को तथा नियतकालिक प्रतिक्रमण की एवं वर्षावास में चार महीने एक क्षेत्र में निवास की परम्परा को बदला तथा भगवान् पार्श्वनाथ के साधुवेश में पांचों ही रंग के वस्त्र पहनने की परम्परा प्रचलित हुई, ब्रह्मचर्य महाव्रत को पंचम महाव्रत में समाविष्ट करने की परम्परा प्रचलित हुई, एवं अनाचीर्णों की सूची में आई हुई शय्यातर, राजपिण्ड आदि कतिपय बाह्याचारों की मर्यादाएं भी बदलीं, तो क्या बाह्याचार, क्रियाकाण्ड, रूढ़ परम्परा, तथा विधि-निषेध के कुछ नियमोपनियमों में
| धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग
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