________________ धर्म की त्रिवेणी - अहिंसा, संयम और तप (जैनसाध्वी डॉ. प्रभाकुमारीजी 'कुसुम' एम.ए, पीएच.डी.) धर्म जीवन का मूल और प्राण वाय है। धर्म इतना व्यापक, है। जो व्यक्ति संयमशील है, वही सच्चे विशाल और चैतन्य है कि हम इसे विश्व की एक नैतिक सुव्यवस्था अर्थों में धनिक माना जाता है, क्योंकि मानते हैं। धर्म का आभूषण वैराग्य है, वैभव नहीं / पुष्प और सुगन्ध संयम ही हमारे धर्म का स्तम्भ है। की भाँति समाज और धर्म का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। धर्म संकुचित आत्म-संयमी बनकर सतत प्रयल करते सम्प्रदाय नहीं है, वह केवल बाह्याचार भी नहीं, बल्कि जीवन को गति हुए अपरिग्रह के सिद्धान्त का अक्षरश: प्रदान कर लक्ष्य तक पहुँचाने में अर्थात् पुरुषार्थ प्राप्ति में धर्म सहायक पालन करना ही सच्चा जैन धर्म है, बनता है। दयामय धर्म जीवन का साध्य है, धर्म की त्रिवेणी में धर्म- साधना के लिये संयम प्रथम अवगाहना करने के लिये हमें तीन सूत्रों से सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा। सोपान है। वे तीन सूत्र हैं- अहिंसा, संयम और तप। तपअहिंसा जैन साध्वी डॉ. प्रभाकुमारी तपस्या जीवन की सबसे बड़ी अहिंसा धर्म की आत्मा और उसका मेरुदण्ड है। अहिंसा प्रेम 'कुसुम' कला और महत्वपूर्ण साधना है। की पराकाष्ठा है। जहाँ अहिंसा है वहाँ अपार धीरज, विनय, जिसके बिना जीवन अधूरा ही बना रहता है। तप से ही हमारी काया त्याग आत्मिक शांति और डेय-जेय-उपादेय का ज्ञान है जो हमें कंचनमय बनकर निखरती है / तप आत्मा की शुद्धि का मूल साधन निरन्तर प्रेरित करते हुए जीवन के दिव्य पथ में आगे बढ़ाते रहते हैं। है / तपक द्वारा ही मुक्ति के इच्छुक साधक आत्मसंयम और आत्मशुद्धि इस दुःख जगत की पीड़ा या आधि-व्याधि दूर करने का एक ही सीधा ___ की ओर बढ़ते हैं और अन्त में सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। और सच्चा मार्ग है, और वह है- 'अहिंसा'। अहिंसा के द्वारा ही तप के द्वारा विश्व की बड़ी से बड़ी सिद्धियाँ उपलब्ध हो जाती मानव सत्य से साक्षात्कार कर सकता है। अहिंसा निर्बल और कायरों हैं। प्राचीन काल में तप का बड़ा महत्व था, इसी तप के प्रभाव से का हथियार नहीं, वीरों का भूषण है, वीरों का धर्म है। संसार में सत्य ऋषि-मुनि-तपस्वियों ने सुखी और शान्त जीवन व्यतीत करके जगत में अनेकों चमत्कार दिखाये, परन्तु आज तप के अभाव में व्यक्ति जीवन के बाद अहिंसा ही बड़ी से बड़ी सक्रिय शक्ति सिद्ध हो चुकी है। जो पथ और धर्म पथ से भटक गये हैं। मानव तप से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त सम्पूर्ण अहिंसा के साथ अनन्तकाल तक इस पर डटा रहा, वह अवश्य कर सकता है किन्तु तपस्या करने वालों को अपनी साधना और चरित्र ही विजयी होकर गौरवशाली बना है। पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। अहिंसा मुनिव्रत का सर्वप्रथम एक महावत है / श्रावक धर्म का जैन दर्शन के नव-तत्व में तीन तत्त्व जो उपादेय अर्थात् ग्रहण भी सबसे पहला व्रत है- 'अहिंसा' / एक पूर्व स्थिति है। अहिंसा करने योग्य हैं, वे हैं - संवर, निर्जरा, मोक्ष / इसमें निर्जरा तत्व तप की की समाप्ति ही मानव जाति का पतन है। आज संसार में अज्ञान के ओर अग्रसर करता है। कर्म बंधनों का क्षय इसी निर्जरा या तपस्या अंधकार में भटकनेवाले लोगों की संख्या में वृद्धि का मूल कारण से ही संभव है। तप से आत्मा की स्वाभाविक शांति का विकास अहिंसा का अभाव है। जैन दर्शन की नींव इसी अहिंसा पर सुदृढ़ होता है। ज्यों-ज्यों कर्मों का आवरण कमजोर होता जाता है, त्यों-त्यों है, जो जीवन का पर्यायवाची बन गई है। अहिंसा प्रचण्ड शास्त्र है। आत्मिक ज्योति का प्रकाश विकसित होने लगता है, तप हमें गतिशील अहिंसा परम पुरुषार्थ है। बनाता है। संयम जैन धर्म में जिनकी आस्था, निष्ठा एवं श्रद्धा है, जैन सिद्धान्तों यदि हम निरन्तर कर्मशील रहकर कर्म बन्धनों का क्षय करके तथा आदर्शों में जिनका विश्वास है तथा जैन आगमों में जिनकी मोक्ष पाना चाहते हैं तो हमें संयमी बनना होगा। बिना संयम के संसार अविचल और अटूट मान्यता है उन्हें इस त्रिवेणी में स्नान करने का में कोई भी साधना संभव नहीं है। अमर्यादित जीवन जीनेवालों की अलौकिक अद्भुत और अनुपम आनन्द प्राप्त होता है। अहिंसा, तप स्थिति कर्णधार हीन नाव के समान है। जो पहली ही चट्टान से और संयममय त्रिवेणी में संयम ही धर्म का मूल है अत: कभी मूल टकराकर चूर-चूर हो जाती है। अत: संयमी बनकर साध्य की साधना में भूल न हो, यह ध्यान प्रत्येक के मन में, मस्तिष्क में सदा तरोताजा में लीन हो जाना ही मानव का निज-गुण है। यदि मानवशक्ति संयमी बना रहना चाहिए। सेवाभाव से अपने - अपने कर्त्तव्य की पहचान करलें तो विश्व की जल ही हमारा जीवन है। जल भी त्रिवेणी का हो, और त्रिवेणी सभी समस्याएँ आज ही समाप्त हो जाये और यह धरती स्वर्ग बन भी धर्म की हो। धर्म की त्रिवेणी में अहिंसा गंगा है, संयम यमुना है, जाए। तो तप सरस्वती है। जो आत्मा इस अहिंसा-तप-संयम मय त्रिवेणी संयम हमारे जीवन का स्वर्णिम सूत्र है - यह सूत्र हमें जीवन में स्नान करेगी वही सच्चे शाश्वत सखों की अधिकारी होगी। तो के चार परुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता आदए इस त्रिवेणी में आत्म-आनन्द हेत अवगाहन करें। श्रीमद् जयंवसेनसूरि अभिनंदन मेथ/वाचना, 52 मान करे अपमान हो, मान हरे सम्मान / जयन्तसेन अहं तजे, वह नर देव समान // www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only