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धर्म का वैज्ञानिक विवेचन
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लक्षित हो रही है, वह हर वस्तु को अस्वीकार की मुद्रा में स्वीकारती है। परन्तु मैं यह समझता हूँ कि ईश्वर की धारणा भी स्थिर धारणा नहीं है, वह भी विकासोन्मुख धारणा है । आज का वैज्ञानिक-दर्शन 'ईश्वर' को एक धारणा के रूप में स्वीकार करता है और उसे निरपेक्ष न मानकर सापेक्ष मानता है। मानवीय विकास-क्रम की सापेक्षता में 'ईश्वर' की भावना परिवर्तित एवं परिवद्धित होती रही है । जैसा कि अन्यत्र संकेत किया जा चुका है कि किसी भी 'प्रतीक' के क्षेत्र को केवल एक ज्ञान-क्षेत्र में ही सीमित कर देना, उस प्रतीक की अर्थ-सम्भावनाओं को सीमित या कंठित कर देना है। आज के बौद्धिक युग में मानवीय चिंतन के क्षेत्र में सत्यों की समरसता, एक अत्यन्त आवश्यक तत्त्व है १२ और धर्म तथा विज्ञान के सत्यों में भी समरसता अपेक्षित है। जहाँ तक इन दोनों क्षेत्रों का सम्बन्ध है, इन दोनों के अनेक सिद्धान्तों एवं प्रस्थापनाओं में विरोध एवं समानताएँ हैं और यह बात भी ध्यान में रखनी आवश्यक है कि सिद्धान्तों का संघर्ष कोई विनाश का सूचक नहीं है, पर यह संघर्ष तो एक ऐसा अवसर है जो जीवन-मूल्यों के प्रवाह को एक नई गति प्रदान करता है। रूपों के प्रवाह में जीवन को व्यवस्थित एवं सुरक्षित किया जा सकता है। आधुनिक-धर्म की प्रवाहमयता जीवन के इसी प्रवाह को हृदयंगम कर सकती है और दूसरी ओर विज्ञान की अतिबौद्धिकता को आस्था एवं आस्तिकता के संस्पर्श से सरस एवं बोधगम्य बना सकती है। मेरी तो यह मान्यता है कि विज्ञान धर्म की आस्था को और धर्म को विज्ञान की तार्किकता को इस प्रकार समाहित करना होगा कि दोनों एकाकार हो जाएं । ज्ञान के क्षेत्र में हर्मिता की 'पिघलन' अत्यन्त आवश्यक है और आज का बुद्धिजीवी अपने-अपने दायरों में इतना हठधर्मी हो गया है कि वह अपने क्षेत्र को ही एकमात्र सत्य-क्षेत्र मानता है। जीवन के मूल्यों को किसी विशिष्ट सांचे में सदा ढाला नहीं जा सकता है अथवा दुसरे शब्दों में, जीवन की प्रवाहमयता को किसी एक दिशा में बांध देना, उसके प्रवाह को कुंठित ही नहीं करना है, पर उसे उसकी 'चेतना' से अलग कर देना है। इस संदर्भ में धार्मिक-अनुष्ठानों के प्रति अविश्वास का प्रश्न ही नहीं उठता है, वरन् उनके यथोचित सम्मान का प्रश्न अवश्य है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान एवं संस्कार का सम्मान इसलिए करें कि अनुष्ठानकर्ता उसे कितनी सचाई से करता है। 3 'सचाई' के प्रति उसकी प्रतिबद्धता ही उसकी परीक्षा है। ज्ञान का चाहे कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, यदि वह सचाई के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है, तो वह अपने में ही सिमटकर शुतुरमुर्गीय-प्रवृत्ति का हो जाएगा। यह शुतुरमुर्गीय-प्रवृत्ति ज्ञान के लिए एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो ज्ञान को कुंठित कर देती है।
अत: ज्ञान-क्षेत्रों के लिए आस्था एक आवश्यक तत्त्व है जो धर्म के प्रतीकों तथा मान्यताओं में भी दृष्टव्य है । यही रूप 'ईश्वर' और 'आत्मा' की धारणाओं में मिलता है। अद्वैतवाद, जो धर्म तथा दर्शन का मुख्य विवेच्य रहा है, वह आधुनिक विज्ञान की प्रस्थापनाओं के द्वारा पुष्ट होता जा रहा है । बट्रेन्ड रसेल, फेड हॉयल, डा० आइन्स्टाइन आदि विज्ञान-दार्शनिकों ने विज्ञान के अद्वैत-दर्शन की ओर संकेत किया है जो यथार्थ और आदर्श का समन्वित रूप है । इस दृष्टि से हम इस विचारधारा को आदर्शवाद के ही अधिक निकट पाते हैं। पदार्थ का ऊर्जा (Energy) में
और ऊर्जा का पदार्थ में 'रूपान्तरण', उनमें 'एकत्व' की स्थिति को स्पष्ट करता है जो दार्शनिक शब्दावली में 'अद्वैत' का ही रूप है। विज्ञान और धर्मशास्त्र
यहाँ पर एक प्रश्न और उठता है। योरूप में इस शताब्दी के आरम्भ में और आगे चलकर
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१२ साइंस एण्ड दि माडर्न वर्ल्ड, ए० एन० ह्वाइट हेड, पृ० १८५ १३ दि ह्य मन डेस्टनी, ली काम्ते ड्यूं न्यू, पृ० १२७
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सपा प्रवरा अभिभाप्रवर अमर श्रीआनन्दन्थ श्राआनन्दमन्थर
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