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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / ११७
अन्तिम सत्य स्वीकार करता है। अतः यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है।
जैनेतर परम्परात्रों में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान माधवाचार्य (ई. १३५०?) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का पाता है। किन्तु 'सर्वदर्शनसंग्रह' की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र सम्यग्दर्शन है। सर्वसिद्धान्तसंग्रह और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों ग्रन्थों की मूलभूत शैली खण्डनपरक ही है । अतः इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतो के प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती है, जो हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है।
__ वैदिक परम्परा में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा स्थान माधवसरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का पाता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और प्रवैदिक-ऐसे दो भागों में बाँटा गया है। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, और जैन ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये गये हैं । इस ग्रन्थ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है। अतः हरिभद्र के षडदर्शनसमुच्चय जैसी उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है।
वैदिक परम्परा में दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वतीकृत 'सर्वदर्शनकौमुदी' का पाता है। इस ग्रन्थ में दर्शनों को वैदिक और प्रवैदिक-ऐसे दो भागों में बांटा गया है। प्रवैदिक दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, और जैन ऐसे तीन भेद तथा वैदिक दर्शन में तर्क, तन्त्र और सांख्य ऐसे तीन भाग किये गये हैं। इस ग्रन्थ की शैली भी मुख्यरूप से खण्डनात्मक ही है । अतः हरिभद्र के षटदर्शनसमुच्चय जैसा उदारता और निष्पक्षता इसमें भी परिलक्षित नहीं होती है।
वैदिक परम्परा के दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों में चौथा स्थान मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थानभेद' का पाता है। मधुसूदन सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया है। नास्तिक-प्रवैदिक-दर्शनों में वे छह प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश हा है। आस्तिक-वैदिकदर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत-दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं०दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार 'प्रस्थानभेद' के लेखक की एक विशेषता अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनसंग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है । वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि ये (प्रस्थानों के प्रस्तोता) सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ थे । चंकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रविष्ट होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये हैं।' इस प्रकार प्रस्थानभेद में यत्किचित उदारता
१. षड्दर्शनसमुच्चय--सं० डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना पृ० १९ ।
धम्मो दीयो मसार समुद्र में धर्म ही दीय है।
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