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धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२५
प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह किया है। हरिभद्र के समस्त उपदेशात्मक साहित्य, धावक एवं मुनि आचार से सम्बन्धित साहित्य को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर ही अधिक बल देते हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थों में याचार सम्बन्धी जिन बातों का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति को चारित्रिक निर्मलता और कषायों के उपशमन के निमित्त ही है। जीवन में कषाय उपशान्त हो समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं जीवन की उन्होंने खुलकर निन्दा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े हाथों लिया है। उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है
अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद् योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ योगबिन्दु ३१
साधनागत विविधता में एकता का दर्शन
धर्मसाधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंने सम्यक् - समाधान खोजा है । जिस प्रकार गीता में विविध देवों की उपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है उसी प्रकार हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने धावार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं—उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार पद्धतियाँ बाह्यतः भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं । सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है तत्त्वतः भेद नहीं होता है । "
हरिभद्र की दृष्टि में प्राचारगत घोर साधनागत जो भिन्नता है वह मुख्य रूप से दो श्राधारों पर है । एक तो साधकों की रुचिगत विभिन्नता के आधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की योग्यता के आधार पर है । जिस प्रकार एक वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की भिन्नता के आधार पर धौर रोग की भिन्नता के आधार पर अलग-अलग श्रौषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्मा जन भी संसार रूपी व्याधि हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना की भिन्न-भिन्न विधियां बताते हैं वे पुनः करते हैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है। वस्तुतः विषय वासनाओं से प्राक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार पर स्वयं धर्म साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न लगाना अनुचित ही है। वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म साधना के क्षेत्र में बाह्य
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१. योगदृष्टिसमुच्चय १०७, १०८, १०९ ।
२. चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः ।
यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ॥ योगदृष्टिसमुच्चय, १३४
३. यद्वा तत्तनयापेक्षा तरकालादिनियोगतः ।
ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपि तत्त्वतः ॥ - योग दृष्टिसमुच्चय, १३८
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धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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