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"धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र की सहिष्णुता / १२३
इस प्रकार हरिभद्र जैन और जैनेतर परम्परानों के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं। जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भाव रखा, उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ भाव रखा है।
अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन
यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्परामों के प्रति एक उदार और सहिष्ण दष्टिकोण को लेकर चलते हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं हैं कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते हैं । एक अोर अन्य परम्परामों के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं । इस दृष्टि से उनकी दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं-(१) धूर्ताख्यान और (२) द्विजवदनचपेटा । धर्ताख्यान में उन्होंने पौराणिक परम्परा में पल रहे अन्धविश्वासों का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धर्ताख्यान में वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा शंकर के द्वारा अपनी जटाओं में गंगा को समा लेना, वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना । गणेश का पार्वती के शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पार्वती का हिमालय की पुत्री होना आदि अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। हरिभद्र धूर्ताख्यान में कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते हैं और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपरोक्त बातें सत्य हैं तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकतीं। इस प्रकार धर्ताख्यान में वे व्यंग्यात्मक किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या-विश्वासों की समीक्षा करते हैं। इसी प्रकार द्विजवदनचपेटा में भी उन्होंने ब्राह्मणपरम्परा में पल रही मिथ्या धारणाओं एवं वर्णव्यवस्था का सचोट खण्डन किया है । हरिभद्र सत्य के समर्थक हैं, किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यतानों के कठोर समीक्षक भी हैं ।
तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन
हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को तर्कविरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्क से रहित श्रद्धा उपादेय नहीं है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।।
-लोकतत्त्वनिर्णय ३८ उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए । यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपने वाले दोषों के प्रति भी सचेष्ट हैं । वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क का उपयोग केवल अपनी
धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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