________________
द्वैतवाद और अनेकान्त
हम जिस जगत् में सांस ले रहे हैं वह द्वन्द्वात्मक है। उसमें चेतन और अचेतन - ये दो द्रव्य निरन्तर सक्रिय हैं। इन दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है- - चेतन अचेतन से उत्पन्न नहीं है और अचेतन चेतन से उत्पन्न नहीं है । चेतन भी त्रैकालिक है और अचेतन भी त्रैकालिक है। इन दोनों में सह-अस्तित्व है। दोनों परस्पर मिले-जुले रहते हैं। शरीर अचेतन है, आत्मा चेतन है। दोनों में पूर्ण सामंजस्य है। दोनों एकदूसरे का सहयोग करते हैं। चेतन को अचेतन के माध्यम से और अचेतन को चेतन के माध्यम से समझने में सुविधा होती है। चेतन से अचेतन और अचेतन से चेतन प्रभावित है । अचेतन में ज्ञान नहीं है, इसलिए वह चेतन के प्रभाव से मुक्त होने की बात सोच नहीं सकता । चेतन में ज्ञान है, इसलिए वह अचेतन के प्रभाव से मुक्त होने की बात सोचता है और उसके लिए उपाय करता है। इस तत्त्ववाद के आधार पर चेतन तत्त्व दो भागों में विभक्त है
१. अचेतन प्रभावित चेतन-बद्धजीव ।
२. अचेतन से अप्रभावित चेतन मुक्तजीव ।
-
बद्धजीव की व्याख्या सापेक्ष दृष्टि से की जा सकती है । अचेतन की सापेक्षता के बिना बद्धजीव की व्याख्या नहीं की जा सकती । इस दृष्टि से बद्धजीव का अस्तित्व सापेक्ष सत्य है और मुक्तजीव का अस्तित्व निरपेक्ष सत्य है । इसी प्रकार चेतन से संपृक्त अचेतन पदार्थ परतंत्र होते हैं और चेतन से असंपृक्त अचेतन पदार्थ स्वतंत्र होते हैं। परतंत्र अचेतन पदार्थ सापेक्ष सत्य है और स्वतंत्र अचेतन पदार्थ निरपेक्ष-सत्य है।
जैन ताकिकों ने पक्ष और प्रतिपक्ष के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका तर्कसूत्र है जो सत् है वह प्रतिपक्षयुक्त है। इस तर्क का आधार आगम सूत्र में भी मिलता है । स्थानांग में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार ( दो-दो पदों में अवतरित होता है
१. जीव और अजीव ।
२. त्रस और स्थावर ।
३. सयोनिक और अयोनिक ।
-
४. आयु सहित और आयु रहित ।
५. इन्द्रिय सहित और इन्द्रिय रहित ।
६. वेद सहित और वेद रहित ।
७. रूप सहित और रूप रहित ।
८.
६. संसार समापन्नक |
पुद्गल सहित और पुद्गल रहित ।
१०. असंसार समापन्नक ।
११. शाश्वत और अशाश्वत ।
१२. आकाश और नो- आकाश ।
१३. धर्म और अधर्म ।
१४. बंध और मोक्ष |
१५. पुण्य और पाप । १६. आस्रव और संवर ।
जैन दर्शन मीमांसा
Jain Education International
युवाचार्य महाप्रज्ञ जी ( मुनि नथमल )
For Private & Personal Use Only
१७
www.jainelibrary.org