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________________ द्रव्य : एक अनुचिन्तन २५७ . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............ पञ्च वि इन्दियपाणा, मणक्यणकायतिण्णिबलपाणा। आणप्पणाणणा"..." || -गोम्मटसार जीवकाण्ड । जीव द्रव्य स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है। यदि कोई कहे कि जीव तो अनुमान प्रमाण से ही जाना जाता है। उसकी जन्म, मृत्यु, श्वसन आदि क्रियाओं को देखकर उसका अनुमान होता है, यह सत्य है किन्तु स्वयं का अनुभव भी होता है कि मैं शरीर से पृथक हूँ और सुखी हूँ, दुःखी हूँ तथा जानने वाला हूँ। यही कारण है कि जैन दर्शन में सम्यक् श्रद्धान की महिमा गाते हुए कहा गया है कि आत्मा की व्याख्या वचनों से कहाँ तक की जाये, यदि हम एक बार स्व को समाप्त कर देखें तो सब समाधान हो सकता है । जितनी गहराई में उतरेंगे उतने ही आत्मा के तल में पहुँच जायेंगे। जीव संख्या में अपरिसंख्येय हैं तथा 'स्व' में पूर्ण, 'पर' से नितान्त भिन्न हैं। सभी जीव समान गुण-धर्मों से युक्त एवं अनेकान्तात्मकता से युक्त हैं। एक जीव और सभी जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में विद्यमान हैं। प्रत्येक जीव का प्रमाण कम से कम लोकाकाश के असंख्यातवें भाग तथा अधिक से अधिक पूर्ण लोकाकाश के बराबर है। उमास्वामी ने इस विषय को स्पष्ट करने के लिए "प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्" यह उदाहरण दिया है। अर्थात् जिस तरह प्रकाश कम या अधिक स्थान में संकोच या विस्तार कर सकता है उसी तरह जीव भी शरीर के अनुसार संकोच विस्तार कर सकता है। पुद्गल पुद्गल द्रव्य की इकाई परमाणु है। स्वतन्त्र परमाणु को नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता, लेकिन पुद्गल समूह को देखा जा सकता है । प्रत्येक परमाणु में अनन्त गुण-धर्म होते हैं। इनमें दो विशिष्ट गुण होते हैं, जिन्हें शक्त्यंश कहते है। ये गुण हैंरू-क्षता एवं स्निग्धता । ये दोनों गुण सापेक्ष होते हैं । अणु एवं स्कन्ध की उत्पत्ति उमास्वामी ने कहा है-'भेदसंघाताभ्यां उत्पद्यन्ते भेदादणुः' "भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः" “स्निग्ध रूक्षत्वादबन्धः", "न जघन्यगुणानाम्" "गुणसाम्ये सदृशानाम द्वयधिकादिगुणानां तु ।” अर्थात् स्कन्धों के भेदन (तोड़ने) से अणु तथा अणुओं को संहित करने (जोड़ने) से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। यह क्रिया स्निग्ध और रूक्ष शक्त्यंशों के निमित्त से ही होती है लेकिन जघन्य शक्त्यंशों से नहीं। जैसे तेल में पानी नहीं मिलता वैसे सामान शक्त्यंशों से भी बन्ध नहीं होता। जैसे माना कि दो आटा के अणु हैं वे तब तक नहीं मिलेंगे जब तक कि उनमें दो कम शक्त्यंश वाली वस्तु न मिले । यदि उनके बीच में मात्रानुसार पानी मिल जाये तो बन्ध हो जायेगा। यही कारण है कि आटा गंधते समय आटे से आधे या उससे भी कम भाग पानी की जरूरत होती है। यही अर्थ 'व्यधिकादि' सूत्र से स्पष्ट होता है। यदि समान भाग पानी मिला दिया जाये तो आटा पिण्डीभूत नहीं होगा। दोनों आटा परमाणु समान गुण होने से बिना किसी प्राध्यम के नहीं बँध सकते यह अर्थ है “गुणसाम्ये सदृशानाम्" का। आज की भाषा में इन शक्त्यंशों को हम इलेक्ट्रान कह सकते हैं। क्योंकि आज वैज्ञानिक भी यही तथ्य बतलाते हैं कि जिस परमाणु की कक्षा में कम इलेक्ट्रान होगा किंवा समान होंगे तो एक परमाणु के इलेक्ट्रान दूसरे परमाणु के इलेक्ट्रान की कक्षा में चले जाते हैं और आपस में बँध जाते हैं। आणविक बल तथा आणविक दूरी को समझने के लिये वे कहते हैं कि जब आणविक दूरी कम होती है तो आणविक बल अधिक रहता है। जैसे एक लोहे का ठोस (पिण्ड) अत्यधिक बल लगाने पर ही टूटता है क्योंकि इसमें आणविक बल अधिक रहता है तथा आणविक दूरी कम । इसके विपरीत एक लकड़ी को तोड़ने के लिए लोहे की अपेक्षा कम बल लगता है अत: उसमें लोहे की अपेक्षा आणविक दूरी अधिक होती है। यह बन्ध भी दो प्रकार का होता है। एक मिश्रण तथा दूसरा यौगिक । जब दो विभिन्न जाति के अणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211182
Book TitleDravya Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Six Substances
File Size483 KB
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