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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
आधुनिक विज्ञान कहता है जिसमें भार तथा आयतन हो एवं जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जाना जा सके, उसे अस्य कहते हैं। यद्यपि यह विज्ञान कभी कुछ तथ्यों को द्रव्य मानने के लिए तैयार नहीं है।
द्रव्यों का वर्गीकरण
आधुनिक विज्ञान द्रव्यों को दो भागों में बांटता है-सजीव द्रव्य तथा निर्जीव द्रव्य वैशेषिक नौ द्रव्य मानते - सत्र पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नर्वयेति ।" - प्रशस्तपाद जैनाचार्यों ने द्रव्य को दो भागों में वर्गीकृत किया है "जीवदव्वाय अजीव दव्वाय " - अनुयोग सूत्र । पुनः अजीव द्रव्यों को उन्होंने पाँच प्रकार का बताया है - पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल । "अजीवकायाः धर्माधर्माकाशपुद्गलाः” "कालश्च” – तत्वार्थ सूत्र ( ५-१, ३० ) इस प्रकार जैन चिन्तकों ने ये पाँच अजीव द्रव्य तथा जीव द्रव्य सहित छह द्रव्य बतलाये हैं।
तथा
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यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जैन आचायों ने छह द्रव्य ही क्यों माने ? वैशेषिकों की तरह नौ द्रव्य क्यों नहीं माने ? इसका उत्तर यह है कि धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों को छोड़कर जीव और पुद्गल ये
सजीव एवं निर्जीव दो द्रव्यों के उपर्युक्त कथन से प्रकट
दो द्रव्य विज्ञान भी स्पष्ट स्वीकार करता है जैसा कि उसके है। वैशेषिकों के जल, वायु आदि कोई पृथक द्रव्य स्वीकार नहीं किये, क्योंकि आज यह सिद्ध कर दिया गया है। कि ये कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं जल में Hg तथा O का संयोग है, वायु, आक्सीजन, नाइट्रोजन आदि का संयोग है तथा शक्कर ( पार्थिव ) आदि में भी C, H तथा O का भिन्न मात्रा का संयोग ही कारण है। दिशा तो प्रतीची उदीची आदि निर्जीव द्रव्यों से ही व्यवहारतः सिद्ध होती है। वस्तुतः दिशा स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं ? मन भी पौगलिक द्रव्य है । विशेष प्रकार के पुद्गल ही आत्मा के साथ रहकर मन संज्ञा पाते हैं । द्रष्ट मन ( मस्तिष्क ) जिन प्राणियों में पाया जाता है वह तो सरासर भौतिक है ही । अन्य द्रव्यों के सम्बन्ध में आगे विचार किया गया है।
इस तरह विज्ञान जैन दर्शन के कितने ही नजदीक आ चुका है !
द्रव्यों की उपलब्धि
जीव द्रव्य स्वानुभव - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों से जाना जाता है। पुद्गल भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जाना जाता है। धर्म तथा अधर्मं द्रव्य जीव और पुद्गलों की गति एवं स्थिति में हेतु होने से और काल द्रव्य द्रव्यों की वर्तना परिणति आदि में हेतु होने से अनुमान और आगम प्रमाण से जाना जाता है। आकाश का ज्ञान भी अनुमान तथा आगम प्रमाण से होता है । केवली (सर्वज्ञ) सब द्रव्यों को प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते हैं ।
कहा है
जीव द्रव्य का स्वरूप
जीव के लक्षण आचार्यों ने मिलते-जुलते किये हैं :--
"तत्र चेतना (चिती - संज्ञाने धातु से निष्पन्न) लक्षणो जीवः " - चरक ।
"ज्ञानाधिकरणमात्मा" अन्नं भट्ट ।
"उपयोगो लक्षणम् ... उमास्वामी ।
यहां हम देखते हैं कि सभी ने जीव का लक्षण 'चेतना' किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव को पुरुष भी
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अस्ति पुरुषश्चिदात्मा, विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवर्णेः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययधोव्यैः ॥
आज का विज्ञान सजीव द्रव्यों का पार्थक्य जनन, प्रजनन, श्वसन, भोजन, वृद्धि तथा मरण से करता है। जैन आचार्यों ने ये लक्षण संसारी (सशरीरी जीव ) के माने हैं।
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