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देवार्चन और स्नात्रपूजा
मुनिराजश्री नरेन्द्रविजयजी के शिष्य' मुनिश्रीजिनेन्द्र विजयजी 'जलज'....."
अनादि अनन्त विश्व में अनादिकाल से परिभ्रमण आप स्वयं अपनी बुद्धि से सोचें। कागज के दो टुकड़े करने वाले संसारी जीवों के लिए संसारसागर को तैरकर मोक्ष आपके सामने पड़े हैं। एक कोरा है और दूसरे पर सौ रुपए की का शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए सद्धर्म के अनेक प्रशस्त सरकारी छाप लगी हुई है। अब इन दोनों में से किस कागज की साधन हैं। उनमें सर्वोत्कृष्ट आलम्बन जिनबिम्ब और जिनागम कीमत अधिक है? ऐसे ही कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित पत्थर हैं। संसार के प्रत्येक धर्म में प्रभु के दर्शन, वन्दन और पूजन को की मूर्ति में आचार्य महाराज द्वारा अंजनशलाका प्राण-प्रतिष्ठा आत्मा की उन्नति का सर्वोत्कृष्ट निमित्त माना गया है। जगत् में विधि से प्राण प्रतिष्ठित किए जाते हैं तब वह मूर्ति साक्षात् प्रसिद्ध जैन धर्म में भी श्री जिनेश्वरदेव की अनुपम उपासना, परमात्मा का दिव्य रूप धारण करती है। सेवा-पूजा को आत्मोन्नति का प्रथम साधन बतलाया गया है।
धर्म फूल खिले जीवन-बाग हैं। प्राकृतिक नियम के अनुसार विश्व के प्रणियों का विशेष आकर्षण मेरी श्रद्धा के सुमन वीतराग हैं।। मूर्ति-प्रतिमा की ओर देखा जाता है।
'नवल' मूर्ति के माध्यम से दर्शन-विशुद्धि का महान आलम्बन जिनमूर्ति-जिनप्रतिमा साक्षात् प्रभुदर्शन का पराग है। है। वीतराग परमात्मा के, जिनेश्वरदेव के दर्शन-वन्दन-पूजन से परमात्मा का स्वरूप निराकार है। वे निराकार होते हुए भी ही आत्मदर्शन होता है। जैसे ज्योति से ज्योति प्रकट होती है, वैसे आकार में ही पाए जाते हैं, क्योंकि विश्व में किसी भी प्रकार की ही वीतराग परमात्मा के दर्शनादि से आत्मा की पहचान होती है। निराकार वस्तु भी आकृति से ही उपलब्ध होती है। ऐसे ही श्री दौलतरामजी ने कहा भी है कि
निराकार विश्वव्यापक प्रभु परमेश्वर से मिलने के लिए, उनकी जय परम शान्त मुद्रा समेत।
मूर्ति का दर्शन-वंदन-पूजन करने के लिए मंदिर में जाना होता भवजन को निज अनुभूति हेत।।
है। क्योंकिकुछ लोग कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति अचेतन होने से
आकृति- आकार बिना निराकार नहीं। कुछ भी लाभ नहीं कर सकती, तब तो यह मानना पड़ेगा कि
और मूर्ति-प्रतिमा बिना प्रभु परमात्मा नहीं। सिनेमा, टी.वी. में जो दृश्यादेखते हैं, वे कुछ भी हानि नहीं कर पूजा शब्द पूज् धातु से बना है, जिसका पूजन के अर्थ में सकते क्योंकि वे भी अचेतन हैं। किन्तु हम देखते हैं कि वे प्रयोग होता है। अर्थात् मन से, वचन से और काया से फूलअचेतन द्रव्य भी लोगों को कामी, विषयी, विकारी, खूनी, हिंसक, फल, धूप, दीप, गन्ध, जल, अक्षत, नैवेद्य इत्यादि सामग्री द्वारा गुण्डे आदि बना रहे हैं, तब वीतराग प्रभु की मूर्ति भी हमें अकामी, इष्टदेव की प्रतिमा का जो विशेष सत्कार कियाजाता है, उसी का निर्विषयी, निर्विकारी और अहिंसक क्यों नहीं बना सकेगी? नाम पूजा हैकहा भी गया है
प्रतिमा पूजो प्रेम से, है परमेश्वर रूप।
'नवल' पूजता पूज्य को, जागे परम स्वरूप।। शरीर में जैसे चेतन है, नौकरी में जैसे वेतन है।
श्री वीतराग प्रभु की मूर्ति की श्रद्धायुक्त भक्ति-भाव से 'नवल' सच मानो पत्थर में
अष्टप्रकारी आदि पूजा की जाती है, वही जिनमूर्तिपूजा है। विशेष मूर्तिमन्त करुणानिकेतन है।।
सत्कार करने को ही मूर्तिपूजा कहते हैं। भक्त का तो यही लक्ष्य
रहता है कि इन वीतराग प्रभु की मूर्ति द्वारा ही मैं वीतराग प्रभु के Madirdrobrowbadwidionotorodidrordinidnid १७HdwirhdwwordwordGitaririd-diaridwardwardrd
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