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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
वास्तविक स्वरूप का वंदन, पूजन, दर्शन, ध्यान तथा चिंतन करूँ । वीतराग प्रभु के प्रति अनुपम आत्मश्रद्धा, स्नेह, प्रेम और भक्ति, सद्धर्म पर दृढ़ श्रद्धा और पूर्ण विश्वास तथा ईश्वत्व के विषय में अस्तित्व बुद्धि रखना ही उनका मुख्य ध्येय रहता है। अतः यह सिद्ध है कि विश्व में सदाचार शान्ति, सुख और समृद्धि का कारण मूर्तिपूजा ही है।
जब परमेश्वर और उनके गुण भी निराकार हैं तो उनको चर्मचक्षु वाले प्राणी कैसे देख सकेंगे? और उनकी उपासना आदि भी कैसे कर सकेंगे? इसलिए चर्मचक्षु वाले को साकार, इन्द्रियगोचर दृश्य वस्तु की ही आवश्यकता रहती है। विश्व में ऐसा सर्वोत्तम साधन शुक्लध्यानावस्थित और प्रशान्त मुद्रा युक्त श्री जिनेश्वर भगवान की मनोहर मूर्तिप्रतिमा से बढ़कर अन्य कोई भी नहीं है। चाहे वह मूर्ति पाषाण की हो, काष्ठ की हो, रत्न की हो, सोने-चाँदी की हो, सर्वधातु की हो, मिट्टी की हो, बालू रेत की हो, या किसी अन्य पदार्थ की ही क्यों न हो, उपासना का लक्ष्य तो उस मूर्ति द्वारा श्री वीतराग परमात्मा के सच्चे स्वरूप का चिंतन, ध्यान करना ही रहता है
जिनदर्शन निश-दिन करो, निज-दर्शन के काज । 'नवल' सुगुण सर्जन करो, चढ़ो बढ़ो गुण साज ॥
भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी मूर्तिपूजा का प्रचार था, ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। चौदहवीं शताब्दी तक जर्मनी आदि में भी मूर्तिपूजा का काफी प्रचार था। उस समय उन प्रदेशों में जैनमंदिर भी विद्यमान थे, जिनके विनाश के अवशेष अनुसंधान करने पर आज भी मिल रहे हैं। आस्ट्रेलिया में श्रमण भगवान महावीर की मूर्ति, अमेरिका में ताम्रमय श्री सिद्धचक्र कट्टा और मंगोलिया प्रान्त में अनेक भग्न मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। पुरातन काल में मक्का-मदीना में भी जैन मंदिर थे, किन्तु जब वहाँ पूजा करने वाले कोई जैन नहीं रहे तब वे मूर्तियाँ भारत देश में सुप्रसिद्ध मधुमति (महुआ बंदर) में लाई गईं।
सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर तीर्थंकर भगवन्त-भाषित जैन सिद्धान्त आगम-शास्त्रों का यह कथन है कि इस विश्व में प्रत्येक आत्मा सत्ता या निश्चय नय से परमात्म स्वरूप है। लेकिन संसारी आत्मा की यह परिस्थिति ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के अधीन है। सिद्धां जैसो जीव है, जीव सो ही सिद्ध होय । कर्म मैल को आंतरा, बूझे बिरला कोय ||
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क्योंकि संसारी आत्मा पुद्गल के विषय में आसक्त होकर. कर्मबंधन करता है। इसलिए वह कर्मसहित है और परमात्मा कर्मरहित विशुद्ध स्वरूप परमेश्वर है। परमात्मा और आत्मा में यही अन्तर है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए परमात्मा की उपासना - अर्चना-सेवा-भक्ति परम अवलम्बनभूत व हितकारी है। सेवा भक्ति का यह उद्देश्य नहीं है कि उनसे हम किसी प्रकार के सांसारिक सुखों की याचना करें। उनके दर्शन और पूजन आदि का उद्देश्य तो उनके गुणों का कीर्तन, स्मरण, ध्यान आदि करना ही है। अर्थात् आत्मा में शुद्ध परमात्मस्वरूप का ध्यान
करना स्मरण करना।
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धर्माराधन में सदेव, सद्गुरु और सद्धर्म का आलंबन परम आवश्यक है। इनको तत्त्वत्रय कहा गया है। सुदेव के दर्शन, पूजन, वंदन से आत्मा को सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त होता है।
उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥
जिनेश्वर भगवान की पूजा करने से उपसर्ग नष्ट होते हैं, विघ्नों का नाश होता है और मन प्रसन्न होता है। कहा भी कहा है
पूज्यपूजा दया दानं, तीर्थयात्रा जपस्तपः । श्रुतं परोपकारं च, मर्त्यजन्मफलाष्टकम् ॥
जिनेश्वर भगवान की पूजा, दया, दान, तीर्थयात्रा, जप, तप, श्रुत और परोपकार मनुष्यलोक में जन्म लेने के ये आठ फल हैं।
दर्शनाद् दुरितध्वंसी, वन्दनात् वांछितप्रदः । पूजनात् पूजकः श्रीणां, जिनः साक्षात् सुरद्रुमः ॥
जिनेश्वर भगवान के दर्शन करने से सब पाप नष्ट होते हैं, वन्दन से वांछित फल की प्राप्ति होती है, पूजन करने से पूजा करने वाले को लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, अतः जिनेश्वर भगवान तो साक्षात् कल्पवृक्ष ही हैं।
अनादिकाल से विश्व में जड़ और चेतन ये दो पदार्थ. विशेष प्रसिद्ध हैं। संसार की समस्त अवस्थाओं में जीवात्मा का कार्य रूपी मूर्त पदार्थों को स्वीकार किए बिना नहीं चल सकता। प्रत्येक चेतन व्यक्ति को जड़ वस्तु का आलम्बन लेना ही पड़ता है, जैसे काल अरूपी है, किन्तु उसे जानने के लिए घड़ी रूपी यंत्र की आकृति को मानना ही पड़ता है।
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