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लल्लनजी गोपाल
अध्याय के आरम्भ के कुछ अंश सुरक्षित नहीं रह पाये हैं। इनमें सम्भवतः सर्वप्रथम ऐश्वयों की प्राप्ति को योगी के लिए अभीष्ट कहा गया था और तदन्तर योग के सन्दर्भ में ऐश्वर्यों की परिभाषा दी गई थी।
देवल ने ८ ऐश्वर्यगुण इस प्रकार गिनाये हैं-अणिमा. ( अणुशरीरत्वम् अणु भाव से सूक्ष्म में भी आवेश की शक्ति ), महिमा ( शरीरमहत्त्वम्; महत्ता के कारण सभी शरीरों को आवृण करने की शक्ति ), लघिमा ( शरीराशुगामित्वम्; इससे अतिदूरस्थान को भी क्षण भर में पहुँच जाता है ), प्राप्ति (विश्वविषयावाप्ति; इससे सर्वप्रत्यक्षदर्शी हो जाता है ), प्राकाम्यम् ( यथेष्टचरित्वम्; इसमें सभी भोगवरों को पाता है ), ईशित्वम् ( अप्रतिहतैश्वर्यम्; इससे देवताओं से भी श्रेष्ठ होता है ), वशित्वम् (आत्मवश्यता; इससे अपरिमित आयु और वक्ष्यजन्मा होता है) और यत्रकामावसायित्वम् ।
इन आठों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है। अणिमा, महिमा और लघिमा को शारीर कहा गया है ( क्योंकि इनका सम्बन्ध शरीर के आकार से है) और शेष पाँच को ऐन्द्रिक कहा गया है (क्योंकि इनका सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों से है)। इसके अनन्तर इन आठ ऐश्वर्य गुणों की व्याख्या है। इस सम्बन्ध में देवल की विशिष्ट शैली है । प्रत्येक ऐश्वर्यगुण को प्रथम सूक्ष्म किन्तु स्पष्ट व्याख्या है और तदनन्तर उससे प्राप्त अतिमानवीय शक्ति का वर्णन है। आठवें गुण यत्रकामावसायित्वम् के तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है-छायावेश, अवध्यानावेश और अङ्गप्रवेश । इनके स्वरूप की व्याख्या करके यत्रकामावसायित्वम् के द्वारा प्राप्य अतिमानवीय शक्ति का वर्णन किया गया है । अन्तिम सूत्र में कहा गया है कि इस प्रकार इन ऐश्वर्य गुणों को प्राप्त करके, कल्मषों को उद्धृत करके, संशयों को छिन्न करके, सभी वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखने वाला होकर, पर और अवर धर्म का जानने वाला होकर, कूटस्थ होकर और यह सब असत् और अनित्य है, ऐसा जानकर स्वयं ही शान्ति प्राप्त करता है । यह ऐश्वर्य की व्याप्ति है।
___ अतिमानवीय शक्तियों अथवा सिद्धियों की अवधारणा आपस्तम्ब धर्मसूत्र' में उल्लिखित है। पतञ्जलि ने योगसूत्र में भूतजय से प्राप्त तीन प्रकार के फलों में एक प्रकार 'अणिमा आदि का प्रादुर्भाव' कहा है। व्यास ने इस सूत्र पर भाष्य में आठों सिद्धियों का नामोल्लेख किया है और उनके स्वरूप की व्याख्या की है। योग से सम्बन्धित सांख्य दर्शन में भी ऐश्वर्यों को स्थान मिला है। आठ सिद्धियों अथवा ऐश्वर्यों की सूची अनेक ग्रन्थों में दी गई है। प्रपञ्चसार' में यत्रकामावसायित्व को हटाकर उसके स्थान पर गरिमा को जोड़ दिया गया है। पूर्वकालीन किसी भी ग्रन्थ में ऐश्वयों अथवा सिद्धियों का विवरण देवल द्वारा प्रस्तुत विवरण से तलनीय नहीं है। इनमें देवल के समान विस्तृत विवरण नहीं है। ये इस प्रकार प्रत्येक ऐश्वर्य अथवा सिद्धि की व्याख्या करके उनके महत्त्व का निरूपण नहीं करते ।
१. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, २.९.२३.६-७ । २. योगसूत्र, ३.४५-ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च । ३. सांख्यकारिका, २३ । ४. अमरकोश, १.१.३६; भागवत पुराण ११.५.४-५ । ५. प्रपञ्चसार, १९.६२-६३ ।
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