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________________ १९२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ नेमिनाथ का जीवनआदर्श त्याग का जीवन है। वे हरिवंश गगन के प्रकाशमान सूर्य थे । भगवान् नेमिनाथ के साथ नारायण और बलभद्र पद के धारक श्रीकृष्ण तथा राम का भी कौतुकावह चरित्र इसमें लिखा गया है । पाण्डवों तथा कौरवों का लोकप्रिय चरित्र इसमें बडी सुन्दरता के साथ अङ्कित किया गया है। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का चरित्र भी इसमें अपना पृथक् स्थान रखता है। हरिवंश पुराण न केवल कथा ग्रन्थ है किन्तु महाकाव्य के गुणोंसे युक्त उच्चकोटि का महाकाव्य भी है । इसके सैंतीसवे सर्ग से नेमिनाथ भगवान् का चरित्र शुरू होता है वही से इसकी साहित्यसुषमा बढती गई है। इसका पचपनवां सर्ग यमकादि अलंकारों से अलंकृत है । अनेक सर्ग सुन्दर सुन्दर छन्दों से विभूषित हैं । ऋतु वर्णन, चन्द्रोदय वर्णन आदि भी अपने ढंग के निराले हैं। नेमिनाथ भगवान् के वैराग्य तथा बलदेव के विलाप का वर्णन करनेके लिये जिनसेन ने जो छन्द चुने हैं वे रस परिपाक के अत्यन्त अनुरूप हैं। श्रीकृष्ण के मृत्यु के बाद बलदेव का करुण-विलाप और स्नेहका चित्रण, लक्ष्मण की मृत्यु के बाद रविषेण के द्वारा पद्मपुराण में वर्णित रामविलाप के अनुरूप है। वह इतना करुण चित्रण हुआ है कि पाठक अश्रुधारा को नहीं रोक सकता । नेमिनाथ के वैराग्य वर्णन को पढकर प्रत्येक मनुष्य का हृदय संसार की माया ममता से विमुख हो जाता है। राजीमती के परित्याग पर पाठक के नेत्रों से सहानुभूति की अश्रुधारा जहां प्रवाहित होती है वहां उनके आदर्श सतीत्व पर जनजन के मानस में उनके प्रति अगाध श्रद्धा भी उत्पन्न होती है। मृत्यु के समय कृष्णमुख से जो उद्गार प्रकट हुए हैं उनसे उनकी महिमा बहुत ही ऊंची उठ जाती है। तीर्थंकर प्रकृति का जिसे बन्ध हुआ है उसके परिणामों में जो समता होना चाहिये वह अन्ततक स्थित रही है। हरिवंश का लोकवर्णन प्रसिद्ध है जो त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति से अनुप्राणित है। किसी पुराण में इतने विस्तार के साथ इस विषय की चर्चा आना खास बात है। पुराण आदि कथा ग्रंथों में लोक आदि का वर्णन संक्षेपरूप में ही किया जाता है परन्तु इसका वर्णन अत्यन्त विस्तार और विशदता को लिये हुए है। कितने ही स्थलों पर करण सूत्रों का भी अच्छा उल्लेख किया गया है। नेमिनाथ भगवान् की दिव्यध्वनि के प्रकरण को लेकर ग्रन्थकर्ता ने विस्तार के साथ तत्त्वों का निरूपण किया है जिसमें यह एक धर्मशास्त्र भी हो गया है। कथा के साथ साथ बीच बीच में तत्त्वों का निरूपण पढकर पाठक का मन प्रफुल्लित बना रहता है । हरिवंश पुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन पुन्नाटसंघ के थे । इनके गुरु का नाम कीर्तिसेन और दादा गुरु का नाम जिनसेन था । यह जिनसेन, महापुराण के कर्ता जिनसेन से सर्वथा भिन्न है। इन्होंने हरिवंशपुराण के च्यासठवे सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की वही आचार्य परम्परा दी है जो कि श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में मिलती है परन्तु उसके बाद अर्थात वीर निर्वाण ६८३ वर्ष के अनन्तर जिनसेन ने अपने गुरु कीर्तिषेण तक की जो अविच्छिन्न परम्परा दी है वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक पहलू भी जोरदार हो जाता है । वह आचार्य परम्परा इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211165
Book TitleDigambar Jain Puran Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size874 KB
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