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________________ की अपेक्षा व्यावहारिक दृष्टिकोण अधिक प्रवल रहा है। वहीं ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि जिन कार्यों के आचरण से हिंसा आदि की कचित् भी संभावना नहीं है, फिर भी वे कार्य निषिद्ध हैं। इससे विदित होता है कि उनकी दृष्टि में व्यवहार कुशलता को कितना ऊँचा स्थान था। नीचे की पंक्तियों में आपका व्यावहारिक दृष्टिकोण अतीव प्रशस्तता लिए उभरा है। साधुत्व स्वीकरण के बाद साधक की दिनचर्या का एक महत्त्वपूर्ण अंग है— भिक्षाचर्या क्योंकि बिना भिक्षा के उसे कोई भी आवश्यक वस्तु प्राप्त नहीं हो पाती । भगवान् ने इसीलिए कहा है कि " सव्वं से. जाइयं होइ, नत्थ fife अजाइयं" साधु की सब वस्तुएँ याचित होती हैं, अयाचित कुछ नहीं होता । अतः आपने भिक्षा की भी सुन्दर मार्मिक तथा सुन्दर विधि प्रदान की, क्योंकि महत्त्व कार्य का जितना नहीं होता उतना विधि का होता है । प्रत्येक कार्य के पीछे क्यों? कब ? और कैसे ? ये जिज्ञासाएं उभर हो जाती हैं। इन तीनों जिज्ञासाओं को सुन्दर समाधान देने वाली कार्य पद्धति ही व्यावहारिक उच्चता प्राप्त कर सकती है । देशकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण २८६ भिक्षा के लिए कब जाए ? इसका सुन्दर समाधान देते हुए भगवान ने कहा कि जब भिक्षा का समय हो ।' क्योंकि काल का अतिक्रमण कर भिक्षार्थ जाने वाला भिक्षु निन्दा, तिरस्कार तथा अविश्वास का पात्र बन सकता है । भिक्षा जाता हुआ मुनि असंभ्रान्त रहे । यद्यपि यह संभ्रान्ति अनेकों दोषों का उद्गम स्थल है, तथापि संघीय जीवन की सरसता तथा माधुर्य दिनष्ट न हो जाए अतः यह महान् उपयोगी व्यावहारिक निर्देश है। भिचारिका करता हुआ मुनि मन्द मन्द चले। यद्यपि भिक्षु के लिए उपयोगपूर्ण शीघ्रगति अविहित नहीं है । फिर भी यदि भिक्षार्थं जाते समय वह त्वरता करता है तो व्यवहार में अच्छा नहीं लगता । दूसरे लोग उसके बारे में विभिन्न अनुमान लगा सकते हैं। जैसे यह भिक्षु इसलिए जल्दी-जल्दी चलता है कि कहीं अमुक परिवार में अमुक भिक्षु पहले न चला जाए। फिर अमुक वस्तु मुझे नहीं मिलेगी । दूसरे स्थान में यह भी बताया गया है कि साधु दब-दब करता न चले, अतिशीघ्र न चले । इससे प्रवचन लाघव होता है । गोचरा के लिए गया हुआ मुनि मार्ग में आलोक गवाक्ष, हरोबा, खिड़की, विग्गल पर का वह द्वार जो किसी कारणवश पुनः चिना गया हो, सन्धि-दो घरों के बीच की गली अथवा सेन्ध - दीवाल की ढकी हुई सुराक और जल-मंचिका अथवा जलगृह को ध्यानपूर्वक न देखे । वे शंका-स्थान हैं। उन्हें इस प्रकार देखने से लोगों को मुनि पर चोर तथा पारदारिक होने का सन्देह हो सकता है। रहस्यमय गुह्य स्थानों में जाने से मुनि गृहपति — इभ्य, राजा और आरक्षकों के रहस्यमय स्थानों में न जाए तथा उनके समीप भी खड़ा न रहे । क्योंकि वे स्थान संवलेकर हैं। इनका वर्जन इसलिए किया गया है कि इन साधु के प्रति स्त्रियों के अपहरण करने का तथा मन्त्रभेद होने का सन्देह हो सकता है। किया जा सकता है । अन्य भी अनेक प्रकार के कष्ट पहुँचाए जा सकते हैं, जिससे व्यर्थ ही साधु को अवहेलना का पात्र बनना पड़े । सन्देहवश साधु को गिरफ्तार १. २ . वही, ५।१।१. ३. वही, ५।१।२ : "चरे मन्दमणुव्विगो | " ४. दशचैकालिक "दवदवस्स न गच्छेज्जा ।” सर्वकालिक ५०१११ संपत्ते भिक्ख कालम्मि | ५. वही, ५।१।१५. ६. वही, ५।१।१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only +6 O www.jainelibrary.org.
SR No.211157
Book TitleDashvaikalik aur Jivan ka Vyavaharik Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size507 KB
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