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३७२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय पुद्गल नित्य और अवस्थित है जिसका तद्भाव-अव्यय हो अर्थात् जिसकी मौलिकता (Fundamental reality) कभी नष्ट न हो वह वस्तु नित्य कहलाती है.' पुद्गल की मौलिकता स्पर्श रस गंध और वर्ण में है और वे चारों उससे एक समय के लिए भी पृथक् नहीं होते अतः वह नित्य है. यह एक अलग बात है कि यह मौलिकता रूपान्तरित (Modified) हो जाती है. कच्चा आम हरा और खट्टा होता है, और वही पककर पीला हो जाता है लेकिन वह वर्णहीन और रसहीन नहीं हो सकता. सोने की चूड़ी को पिघलाकर हार बनाया जा सकता है, लेकिन सोना फिर भी कायम रहेगा, वह तो हर हालत में नित्य है. जो संख्या में कम या बढ़ न हो, जो अनादि भी हो और अनन्त भी और जो न स्वयं को अन्य द्रव्य के रूप में परिवर्तन करे वह वस्तु या द्रव्य अवस्थित कहलाती है. अनादि अतीत काल में जितने पुद्गल-परमाणु थे वर्तमान में उतने ही हैं और अनन्त भविष्य में भी उतने ही रहेंगे. पुद्गल द्रव्य की अपनी मौलिकता यथावत् कायम रहती चली जावेगी. पुद्गल द्रव्य की अपनी मौलिकता (स्पर्श आदि गुण) किसी अन्य द्रव्य में कदापि परिवत्तित नहीं होती और नहीं किसी अन्य द्रव्य की मौलिकता पुद्गल द्रव्य में परिवत्तित होती है. पुद्गल की एक अद्वितीय विशेषता है उसका रूप. यहाँ रूप शब्द का अर्थ है शरीर अर्थात् प्रकृति और ऊर्जा (Matter & energy) जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण स्वयं सिद्ध हैं. ३ पुद्गल का छोटा या बड़ा, दृश्य या अदृश्य, कोई भी रूप हो, उसमें स्पर्श आदि चारों गुण अवश्यंभावी हैं. ऐसा नहीं कि किसी पदार्थ में केवल रूप या केवल गन्ध आदि पृथक्-पृथक् हों. जहां स्पर्श आदि में से कोई एक भी गुण होगा वहाँ अन्य शेष गुण प्रकट या अप्रकट रूप में अवश्य पाये जावेंगे.
न्यायदर्शन की मान्यता
लेकिन न्यायदर्शन के अन्तर्गत केवल पृथ्वी में ही चारों गुण माने गये हैं; जल में केवल स्पर्श, रस और रूप, तेज में केवल स्पर्श और रूप तथा वायु में केवल स्पर्श ही माना गया है. इस भ्रान्ति का कारण यह है कि न्यायदर्शन में पृथ्वी, जल, तेज और वायु को पृथक्-पृथक् द्रव्य माना गया है जबकि वास्तव में, ये सब अपने परमाणुओं (ultimate atoms) की दृष्टि से एक पुद्गल द्रव्य के ही अन्तर्गत आते हैं. न्यायदर्शन की इस मान्यता के खण्डन में मुख्यतः चार तर्क दिये जाते हैं. प्रथम यह कि यदि पृथ्वी आदि चारों पृथक्पृथक् द्रव्य होते तो उनमें के एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए थी जबकि होती अवश्य है. उदाहरणार्थ मोती पृथ्वी द्रव्य के अन्तर्गत है लेकिन उत्पन्न होता है वह जल द्रव्य से. बांस पृथ्वी द्रव्य के अन्तर्गत है लेकिन जंगलों में देखते हैं कि दो बांसों की रगड़ से अग्नि द्रव्य उत्पन्न हो जाता है. दियासलाई आदि का दृष्टान्त भी ऐसा ही है. जो नामक अन्न भी पृथ्वी द्रव्य के अन्तर्गत है लेकिन उसके खाने से वायु द्रव्य उत्पन्न होता है. उजन (Hydrogen) और जारक (Oxygen) ये दो वातियां (Gases) हैं, और वायु द्रव्य के अंतर्गत आती हैं लेकिन उनके रासायनिक संयोग से जल द्रव्य बन जाता है. दूसरा तर्क यह है कि जिस प्रकार पृथ्वी में चारों गुण हैं उसी प्रकार जल, तेज और वायु में से प्रत्येक में भी चारोंचारों गुण हैं. विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है, और जब सभी में समान-समान (चारों-चारों) गुण हैं तो उन्हें पृथक्-पृथक् द्रव्य मानकर द्रव्यों की मूल संख्या बढ़ाना उचित नहीं. न्यायदर्शन जल में गन्ध का निषेध करता है लेकिन
१. तद्भावाव्ययं नित्यम् । ... प्राचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, सू० ४२. २. रूपिणः पुद्गलाः ।वही, अ०५, सू०५. ३. रूपमूर्तिः रूपादिसंस्थानपरिणामः, रूपमेपामस्तीति रूपिणः पुद्गलाः । -आचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, अ०५, सू०५.
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