SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीरंजन सूरि देव : दक्षिण भारत में जैनधर्म : ६०० तक सफलता प्राप्त की, ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता. तत्स्थानीय पांचवीं शती के एक ताम्रलेख में पहले-पहल श्वेताम्बर जैनसंघ का उल्लेख भी प्राप्त होता है.. श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवली के बहुप्रसिद्ध संघ के उपरान्त शास्त्रों में दक्षिण-भारत के उस दिगम्बर जैनसंघ का पता चलता है, जो श्रीधरसेनाचार्य जी के समय में महिमानगरी में सम्मिलित हुआ था. यह नगरी वर्तमान सतारा जिले का 'महिमानगढ़' प्रतीत होता है. जनसंघ के अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर वर्द्धमान और गणधर गौतमस्वामी के उपरान्त कुन्दकुन्दाचार्य को स्मरण करने की परिपाटी प्रचलित है. शिलालेखों में इनका नाम कोण्डकुन्द लिखा मिलता है. इस शब्द का मूल उद्गम द्राविड़भाषा से है, उसीका श्रुतिमधुर संस्कृत रूप कुन्दकुन्द प्रथित हुआ है. कहा जाता है कि इनका यथार्थ नाम पद्मनन्दि था, परन्तु ये कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृध्रपिच्छ नामों से भी प्रसिद्ध थे. ये कुण्डकुन्द नामक स्थान के अधिवासी थे, इसीलिए ये कोण्डकुन्दाचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए थे. इन्होंने अनेक ग्रन्थों की प्राकृत में तथा तमिल में भी रचना की और जैनधर्म के जागरण का विजय-शंख ध्वनित किया. तमिल के अपूर्व नीतिग्रन्थ 'कुरल' के विषय में भी कहा जाता है कि यह श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की रचना है. तमिलवासी इस ग्रन्थ को अपना वेद मानते हैं. कुरल में कुल ८० परिच्छेद हैं. पूरा ग्रन्थ उपदेशों और नीतिवाक्यों के साथ ही तीर्थकरों की गुणगाथाओं और गौरव-गरिमा से परिपूरित है. कुन्दकुन्दाचार्य के बाद दक्षिणा जैनसंघ में भगवान् उमास्वामी या उमास्वाति (ई० प्रथम शती) के अस्तित्व का पता चलता है. कुन्दकुन्दाचार्य की तरह उनकी भी मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में है. दिगम्बर जैनसाहित्य के अनुसार उमास्वाति कुन्दकुन्दाचार्य के वंशज थे एवं उनका दूसरा नाम गृध्रपिच्छाचार्य था. श्वेताम्बरीय प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्वार्थाधिगमसूत्र' के भाष्य में उमास्वाति के विषय में जो प्रशस्ति मिलती है, उससे विदित होता है कि उनका जन्म 'न्यग्रोधिका' नामक स्थान में हुआ था. इनके पिता स्वाति और माता वात्सी थीं. इनका गोत्र कोभीषणि था. इनके दीक्षागुरु श्रमण घोषनन्दि और विद्यागुरु वाचकाचार्य मूल थे. इन्होंने कुसुमपुर (पटना) नामक स्थान में अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ तत्वार्थाधिगमसूत्र रचा था. दोनों ही-श्वेताम्बर-दिगम्बर–सम्प्रदायों में ये 'वाचक' की पदवी से अभिहित थे. श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार इन्होंने पांच सौ ग्रन्थ रचे थे. ये संभवतः पहली शती के प्रसिद्ध दार्शनिक जैनविद्वान् थे. उमास्वाति के पश्चात् श्रीसमन्तभद्रस्वामी का नाम जैनधर्म के अग्रदूत के रूप में लिया जाता है. इन्होंने दक्षिण-भारत के कदम्ब-वंश को सुशोभित किया था. इनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के क्षत्रिय राजा थे. स्वामी समन्तभद्र का बाल्यकाल जैनधर्म के केन्द्रस्थान-उरगपुर में व्यतीत हुआ था. इन्होंने अपने-आपको धर्मार्थ अर्पण कर दिया था. श्रीसमन्तभद्रस्वामी जैनसिद्धान्त के मर्मज्ञ होने के अलावा तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, कोश आदि ग्रन्थों में पूर्णतः निष्णात थे. ये विविध देश-पर्यटक भी थे. निम्नलिखित श्लोक से पता चलता है कि ये देश-पर्यटन के सिलसिले में धर्मप्रचारार्थ एवं शास्त्रार्थ के हेतु पाटलिपुत्र [पटना] पधारे थे. श्लोक इस प्रकार है: पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुटक्क' विषये कांचीपुरीवैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट सङ्कट', वादार्थी विचराम्यहं नरपते ! शार्दूलविक्रीडितम् । १. श्री डी० जी० महाजन के मतानुसार यह पाटलिपुत्र मगध का सुप्रसिद्ध पाटनगर (पटना) न होकर दक्षिण भारत का पाटलिपुत्र भी हो सकता है जैसा कि वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ पृ० ३१६-३२२ से विदित होता है. -सम्पादक २. टक्क (पंजाब) [RRPAN can EININENANINNINNINEMININENENINNINNIFE Hary.org
SR No.211148
Book TitleDakshin Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRanjan Suridev
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size477 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy