Book Title: Dakshin Bharat me Jain Dharm
Author(s): Ranjan Suridev
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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________________ श्री श्रीरंजन सूरिदेव बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना दक्षिण भारत में जैनधर्म [प्रस्तुत निबंध में लेखक ने श्रा० भद्रबाहु के सम्बंध में मागधीय दुष्काल के कारण दक्षिण गमन का जो उल्लेख किया वह दि० जैन मान्यतानुसार है. जबकि श्वे० परंपरा का अभिमन्तव्य है कि प्राचार्य श्री द्वादशवर्षीय दुष्कालनिवारणार्थ दक्षिण की ओर प्रस्थान कर नेपाल में आध्यात्मिक साधना करने में तल्लीन रहे.-सम्पादक] आदि तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा जैनधर्म का प्रचार दक्षिण-भारत में हुआ, ऐसा पौराणिक जैन इतिहास के अध्ययन से पता चलता है. जैनशाखा के प्रमुख दो भेद सर्वविदित हैं-श्वेताम्बर और दिगम्बर. तमिल के 'रत्नाकरशतक" आदि प्राचीन काव्यों से स्पष्ट है कि उनके रचना-काल में, दक्षिण-भारत में, दिगम्बर जैनधर्म ही प्रचलित था. अर्वाचीन जैन आम्नाय का यह मत है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ ही जैनधर्म का प्रवेश दक्षिण-भारत में हुआ. परन्तु, जैनों की पारम्पर्य मान्यता यह है कि उत्तर-भारत के जनसंघ की तरह दक्षिण-भारतीय जैनसंघ भी प्राचीनतम है. यही कारण था कि उत्तर में सुप्रसिद्ध द्वादशवर्षव्यापी घोर अकाल पड़ने पर धर्मरक्षा के खयाल से भद्रबाहु स्वामी अपने संघ के साथ दक्षिण-भारत गये थे. उनका ही संघ ज्ञात रूप में दक्षिण का पहला दिगम्बर जैनसंघ था, ऐसा कहा जाता है. कुछ भारतीयेतर विद्वान् डॉ० हार्नले आदि का कथन है कि अकाल पड़ने पर शाखाभेदरहित जैनसंघ के प्रधान स्थविर भद्रबाहु अपने जिस संघ के साथ मगध से कर्णाटक गये, उसका रूप दिगम्बर ही रह गया और मगध के अवशिष्ट जैन सदस्य, जिसके प्रधान स्थविर स्थूलभद्र थे, श्वेताम्बर कहलाये, श्वेताम्बर श्वेत परिधान के प्रेमी थे और दिगम्बरों के लिये दिशाएँ ही वसन थीं. मगध में पुनः शान्ति की स्थापना के बाद जैनसंघ जब कर्णाटक से मगध लौटा, तब उसने मगध के जनसंघ से संबंधविच्छेद कर अपना अलग सिद्धान्त चलाया.२ अस्तुः, दक्षिण का यह दिगम्बर जैनसंघ द्राविड़ों के बीच बहु आदृत था. कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि द्राविड़ लोग प्रायः नागजाति के वंशज थे. जिस समय नागराजाओं का शासन दक्षिण-भारत में था, उस समय नाग लोगों के बहुत से रीति-रिवाज और संस्कार द्राविड़ों में भी प्रचलित हो गये थे. नागपूजा उनमें बहुत प्रचलित थी. जैनतीर्थंकरों में दो सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ की मूत्तियाँ नाग-मूत्तियों के सदृश थीं. जैनों की सहज सरल पूजा-प्रणाली को भी द्राविड़ों ने आसानी से अपना लिया. इतना तो स्पष्ट है कि दक्षिण-भारत में दिगम्बर जैनधर्म की जनसमुदाय में विशेष मान्यता थी; परन्तु दिगम्बरसिद्धान्त की बहुलता के बावजूद दक्षिण-भारत में श्वेताम्बरों की भी पहुँच हुई थी. श्वेताम्बरीय शास्त्रों से प्रकट है कि कालकाचार्य पेठन के राजा के गुरु थे. फलतः, स्पष्ट है कि श्वेताम्बर जैन आन्ध्र-देश तक पहुँचे थे. इसके बाद ईसवीपूर्व दूसरी शती में श्वेताम्बरों के गुरु पादलिप्ताचार्य मलखेड़ तक गये थे, परन्तु उन्होंने अपने धर्म के प्रचार में कहाँ १. रत्नाकरशतक' तथा उसके कर्ता कवि रत्नाकर के सम्बन्ध में देखिए मेरा लेख; मासिक 'संतवाणी' (पटना), वर्ष ३, अंक ७, सित० १९५८०. २. इस संबंध में विशेष विचरण के लिए देखिए, मेरा लेखः 'उपासक दशासूत्र : एक अध्ययन' त्रैमा० 'साहित्य' (पटना), वर्ष १, अंक ३. ३. कालकाचार्य के संबंध में विशेष विवृति के लिए श्रीमेस्तुंगाचार्यकृत 'प्रबन्धचिन्तामणि'. Jain EBERSPREBERENSINONENBOEINESENOSNOENEN

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