SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिछली शताब्दियोंमें भी न मिले होंगे। पुरातत्त्वका अबतक जितना अन्वेषण हो सका है और भूगर्भसे उसकी खुदाई हुई है, उन सबमें प्राचीनसे प्राचीन दिगम्बर नग्न पुरुषमूर्तियां ही उपलब्ध हुई हैं और जो दो हजार वर्षसे भी पूर्वकी हैं। परन्तु सचेल मूर्ति या स्त्रीमूर्ति, जो जैन निर्ग्रन्थ हो, कहींसे भी प्राप्त नहीं हुई। हाँ, दशवीं शताब्दीके बादकी जरूर कुछ सचेल पुरुषमूर्तियाँ मिलती बतलाई जाती हैं सो उस समय दोनों ही परम्पराओंमें काफी मतभेद हो चुका था तथा खण्डन-मण्डन भी आपसमें चलने लगा था। सच पूछा जाये तो उस समय दोनों ही परम्पराएँ अपनी अपनी प्रगति करने में अग्रसर थीं। अतः उस समय यदि सचेल पुरुषमूर्तियां भी निर्मित कराई गई हों तो आश्चर्य ही नहीं है। दुर्भाग्यसे आज भी हम अलग हैं और अपने में अधिकतम दूरी ला रहे हैं और लाते जा रहे हैं। समय आये और हम इस तथ्यको स्वीकार करें, यही अपनी भावना है। और यदि संभव हो तो हम पुनः आपसमें एक हो जावें तथा भगवान् महावीरके अहिंसा और स्याद्वादमय शासनको विश्वव्यापी बनायें / उपसंहार उपरोक्त विवेचनके प्रकाशमें निम्न परिणाम सामने आते हैं 1. षट्खण्डागममें समस्त कथन भावकी अपेक्षासे किया गया है और इसलिये उसमें द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंकी चर्चा नहीं आयी। 2. 93 वें सूत्रमें 'संजद' पदका होना न आगमसे विरुद्ध है और न युक्तिसे / बल्कि न होने में इस योगमार्गणा सम्बन्धी मनुष्यनियोंमें 14 गुणस्थानोंके कथनके अभावका प्रसंग, वीरसेन स्वामीके टीकागत 'संजद' पदके समर्थनकी असंगति और तत्त्वार्थवात्तिककार अकलंकदेवके पर्याप्त मनुष्यनियोंमें 14 गुणस्थानोंको बतलानेकी असंगति आदि कितने ही अनिवार्य दोष सम्प्राप्त होते हैं। 3. “पर्याप्त" शब्दका द्रव्य अर्थ विवक्षित नहीं है, उसका भाव अर्थ विवक्षित है। पर्याप्तकर्म जीवविपाकी प्रकृति है और उसके उदय होनेपर ही जीव पर्याप्तक कहा जाता है। 4. पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने भावस्त्रीमें सम्यग्दष्टिके उत्पन्न होनेकी मान्यता प्रकट की है वह स्खलित और सिद्धान्तविरुद्ध है / स्त्रीवेदकी उदय व्युच्छित्ति दूसरे ही गुणस्थान में हो जाती है और इसलिपे अपर्याप्त अवस्थामें भावस्त्रीके चौथा गणस्थान कदापि संभव नहीं है। 5. वीरसेन स्वामीके "अस्मादेवार्षाद्" इत्यादि कथनसे सूत्रमें 'संजद' पदका टीकाद्वारा समर्थन होता है। 6. द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका कथन मुख्यतया चरणानुयोगसे सम्बन्ध रखता है और षटखण्डागम करणानुयोग है, इसलिए उसमें उनके गुणस्थानोंका प्रतिपादन नहीं किया गया है। द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणों, हेतुओं, पुरातत्त्वके अवशेषों, ऐतिहासिक तथ्यों आदिसे सिद्ध है और इसलिये षट्खण्डागममें द्रन्यस्त्रियोंके गुणस्थानोंका विधान न मिलनेसे श्वेताम्बर मान्यताका अनुषंग नहीं आ सकता। -374 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211145
Book Title93 ve Sutra me Sanjad Pad ka Sadbhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy