________________ 342 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 85. जिस नक्षत्र में बृहस्पति का उदय हो तद्वाची तृतीयान्त शब्दों से युक्त अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं / वह युक्त अर्थ संवत्सर होना चाहिए-पुष्येण उदित-गुरुणा युक्तं वर्षम् पौषं वर्षम्। पाणिनीय और भिक्ष शब्दानुशासन के भेदस्थलों की सूचना का आधार एक हस्तलिखित पत्र है / उस पत्र की निष्पत्ति में आचार्य श्री तुलसी के मूल्यवान् क्षणों का योग है। वह पत्र प्राप्त नहीं होता तो इतने थोड़े समय में व्याकरण के दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी भिन्नता के बारे में लिखना बहुत कठिन हो जाता। पाणिनीय की भाँति अन्य व्याकरण ग्रन्थों और भिक्षुशब्दानुशासन के बीच की भेदरेखाएँ भी स्पष्ट की जा सकती हैं, किन्तु यह काम बहुत श्रम-साध्य है। इसके लिए सब व्याकरण ग्रन्थों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करना आवश्यक है। जिन विद्यार्थियों की व्याकरण में विशेष अभिरुचि है, वे इस काम में सफल हो सकते हैं / लेकिन उन्हें भी किसी अच्छे वैयाकरण के पथ प्रदर्शन की अपेक्षा रहेगी। उचित पथ-दर्शन में जागरूकता के साथ इस क्षेत्र में गति की जाए तो व्याकरण साहित्य में एक नई विधा का पल्लवन हो सकता है। स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते / स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते // -वेदान्त दर्शन आत्मा स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उनका फल भोगता है। अपने कर्मों के कारण स्वयं ही संसार में भ्रमण करता है और स्वयं ही कर्मों से छूट कर मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org