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तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य
D साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा • (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या)
भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन है। भाषा का नियामक तत्त्व है व्याकरण । प्रारम्भ में कोई भी भाषा व्याकरण के नियमों में आबद्ध नहीं होती। व्याकरण की नियामकता के अभाव में लोक-व्यवहार में प्रचलित शब्दों की तरह भाषा के नए प्रयोग भी मान्य हो जाते हैं । किन्तु यह तब तक होता है जब तक उस भाषा का प्रवेश साहित्य के क्षेत्र में नहीं होता। साहित्य-क्षेत्र में उतरते ही भाषा के लिए नियमन की अनिवार्यता हो जाती है। कुछ लोगों का अभिमत है कि पहले व्याकरण बनता है और उसके अनुसार भाषा के प्रयोग होते हैं, किन्तु व्याकरण के नियमों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उस समय में प्रचलित कुछ विशेष शब्दों की सिद्धि के लिए विशेष सूत्रों का निर्माण किया गया।
___ संस्कृत और प्राकृत भाषा के व्याकरण काफी समृद्ध हैं। जैन एवं जैनेतर विद्वानों ने व्याकरण साहित्य की अभिवृद्धि में पूरा योग दिया है । जैन आगमों के अनुसार 'सत्यप्रवादपूर्व' व्याकरण का उत्स है। उसमें व्याकरण के मौलिक विधानों का संग्रह है । जैन आगमों की भाषा प्राकृत है अत: पूर्वगत व्याकरण के विधान प्राकृत भाषा से सम्बन्धित हो सकते हैं। वह पूर्व वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, इसलिए उसके सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। आगमों के मूल विभाग में 'अनुयोगद्वार' सूत्र है । उसमें लिंग, वचन, काल, पुरुष, कारक, समास, तद्धित आदि का सोदाहरण उल्लेख है। ये उदाहरण प्राकृत भाषा में हैं, किन्तु सम्भव है तब तक संस्कृत भाषा के व्याकरण बन गये हों, क्योंकि इसमें तीन बचनों का उल्लेख है जबकि प्राकृत में द्विवचन नहीं होता है।
भारतीय इतिहास के अनुसार कुषाणकाल संस्कृत साहित्य का उत्कर्षकाल है। इस समय ब्राह्मणों और श्रमणों ने संस्कृत भाषा में लिखना प्रारम्भ कर दिया था। श्रमण-परम्परा में जैन और बौद्ध दोनों का समावेश है। जैन और बौद्ध आचार्यों ने अन्य साहित्य के साथ संस्कृत में व्याकरण भी लिखे । बौद्धाचार्य चन्द्रगोभी का चान्द्र व्याकरण प्रसिद्ध आठ व्याकरणों में से एक है । जैन व्याकरणों की सूची बहुत लम्बी है किन्तु सर्वांगीण व्याकरणों की संख्या अधिक नहीं है । अधिकांश वैयाकरणों ने पूर्व लिखित व्याकरणों की पूरकता अथवा उसकी व्याख्या में ही अपने ग्रन्थ लिखे हैं । स्वतन्त्र और सर्वांगीण रूप से लिखे गए व्याकरणों में भावसेन वेवैद्य का तन्त्र, देवनन्दी का जैनेन्द्र व्याकरण, पल्यकीति का शाकटायन और हेमचन्द्राचार्य का हेमशब्दानुशसान उल्लेखनीय हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती व्याकरणों का सांगोपांग अध्ययन करने के बाद अपना व्याकरण लिखा इसलिए यह अन्य व्याकरणों की अपेक्षा अधिक परिष्कृत है । जैन आचार्यों द्वारा लिखित पचासों व्याकरण ग्रन्थों के नाम उपलब्ध हैं, किन्तु इस निबन्ध में तेरापंथ संघ के व्याकरण ही विवेच्य हैं।
बीसवीं सदी के व्याकरण ग्रन्थों में 'भिक्षुशब्दानुशासनम्' का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस समय में जैन
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