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तेरापंथ में संस्कृत का विकास
मुनि श्री विमलकुमार, युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य
विक्रम संवत् १८८१ की घटना है । उस समय आचार्य जयाचार्य ( तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य ) का सामान्य मुनि अवस्था में मुनि श्री हेमराज जी के साथ जयपुर चातुर्मास था । उस समय उन्हें मालूम पड़ा कि एक श्रावक का लड़का संस्कृत पढ़ता है। जय मुनि के मन में मुन हेमराजजी के पास आगमाध्ययन करते हुए उनकी संस्कृत टीका पढ़कर और अधिक सामर्थ्य प्राप्त करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई थी पर अवैतनिक अध्यापक के अभाव में वह पूर्ण नहीं हो सकी। जब उन्हें ज्ञात हुआ अमुक श्रावक का लड़का संस्कृत का अध्ययन करता है तब उनके मन में उससे संस्कृत पढ़ने की इच्छा हुई। एक दिन जब वह बालक दर्शनार्थ आया तब उन्होंने कहा- तुम दिन में जो संस्कृत पढ़ते हो वह मुझे रात्रि में बताओगे क्या ? यह सुन उसने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा- इससे तो मुझे दोहरा लाभ होगा | पढ़े हुए पाठ की पुनरावृत्ति हो जायेगी तथा आपकी सेवा का अवसर प्राप्त होगा। तत्पश्चात् वह प्रतिदिन रात्रि में आने लगा और दिन में जो कुछ भी पढ़ता उसे जय मुनि को बता देता । जय मुनि उन सुने हुए व्याकरण सूत्रों को वृत्ति सहित तत्काल कंठस्थ कर लेते और दूसरे दिन उनकी साधनिका को राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध कर देते थे । इस प्रकार जय मुनि ने श्रम करके संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। उन्हीं ने सर्वप्रथम तेरापंथ धर्म संघ में संस्कृत का बीज बोया कालान्तर में जय मुनि तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य बने। उन्होंने अपने समय में संघ में संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दिया। उनकी पावन प्रेरणा से मुनि मघराजजी ने संस्कृत का अच्छा अध्ययन किया। वे संस्कृत के विद्वान् कहलाते थे । उन्होंने संस्कृत में कुछ स्फुट रचनाएँ भी कीं । मुनि मघराज जी की संसार पक्षीया बहिन साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी ने सर्वप्रथम साध्वी समाज में संस्कृत का अध्ययन किया था ।
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जयाचार्य के बाद मुनि मधराजजी तेरापंथ के पंचम आचार्य बने वे अपने बाल मुनि कालूरामजी (छापर) को संस्कृत अध्ययन की प्रेरणा देते हुए कहते थे--संस्कृत हमारे आगमों की कुंजी है। आगम प्राकृत भाषा में है। उनकी टीकाएँ संस्कृत में लिखी हुई हैं। संस्कृत जानने वाला टीकाओं के माध्यम से आगमों के रहस्य को समझ सकता है । अतः हमें संस्कृत अवश्य पड़नी चाहिए।' मघवाराणी की पाचन प्रेरणा से तथा उनकी छत्र-छाया में मुनि कालूराम जी ..ने संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया पर उसके पूर्णता तक पहुँचने पूर्व ही आचार्य मघराजजी का स्वर्गवास हो गया । - मघवागणी के बाद तेरापंथ धर्म-संघ में संस्कृत का प्रवाह क्रमशः बन्द होने लगा ।
मागणी के पश्चात् मुनि माणकलाल जी तेरापंथ के छठे आचार्य बने वे कुछ वर्षों तक ही (वि० सं० १६४९ चैत्र कृष्णा अष्टमी से वि० सं १६५४ कार्तिक कृष्णा तृतीया) शासन कर पाये कि क्रूर काल अचानक उन्हें उठाकर ले गया। इस आकस्मिक निधन के कारण वे अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति भी नहीं कर सके। अतः तेरापंथ धर्म-संघ के सम्मुख एक जटिल समस्या उत्पन्न हुई। क्योंकि संघ के विधानानुसार भावी आचार्य का चुनाव वर्तमान आचार्य ही करते हैं । इस समुत्पन्न जटिलता को संघ के शासन-निष्ठ मुनियों ने मिलकर सुलझा दी और सर्व सम्मति से मुनि डालचंद जी को तेरापंथ का सप्तम आचार्य घोषित कर दिया ।
आचार्य डालगणी के शासनाकाल की घटना है। एक बार वे वि० सं० १९६० में बीदासर पधारे। उस
१. महामनस्वी आचार्य श्री कानूगणी का जीवन-मृत, पृ० ३८.
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