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________________ 0+0+0+ + + ++++ तेरापंथ के महान् श्रावक मुनि श्री विजयकुमार युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य तेरापंथ एक प्राणवान धर्मसंघ है। इसकी गौरवशाली परम्पराओं को देखकर हर व्यक्ति इसके प्रति श्रद्धावनत हो जाता है। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र जी ने विश्वयात्रा से लौटकर जब युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के दर्शन किये तब निवेदन किया- " मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया और वहाँ पर अनेक धर्म संस्थान भी देखे किन्तु तेरापंथ जैसा सुव्यवस्थित संगठन कहीं नजर नहीं आया। एक आचार्य के नेतृत्व में यह संघ सदा फलता फूलता रहा है । आचार्य भक्ष ने इसकी नींव में मर्यादा और अनुशासन के दो खम्भे ऐसे गाड़ दिये है कि इस संघ रूपी प्रासाद को कहीं कोई खतरा नहीं है। एक से एक महान् आचार्य सौभाग्य से इस गण को मिलते रहे हैं। वर्तमान में आचार्य तुलसी की छत्रछाया में इस संघ ने विकास के और नये आयाम उद्घाटित किये हैं। आचार्य भिक्षु ने बीज वपन किया था वही बीज आज आचार्य श्री के सद्प्रयासों से वट वृक्ष के रूप में लहलहा रहा है और अब तो वह वृक्ष इतने विशाल आयतन में फैल गया है कि उस वृक्ष की शीतल छांह में समस्त वसुधा के प्राणी बैठकर आनन्द का अनुभव कर सकते हैं । इस संघ को सर्वांग सम्पन्न शरीर की उपमा दी जा सकती है । शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग होता है मस्तिष्क । आचार्य को मस्तिष्क से उपमित किया जा सकता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, इसके हाथ-पैर के समान हैं । मस्तिष्क पूर्ण विकसित हो और हाथ पैर को अगर लकवा मार गया हो तो व्यक्ति का कोई भी चिन्तन कार्य रूप में परिणत नहीं हो पाता है। व्यक्ति जीवित अवस्था में भी मृतत्व की पीड़ा को भोग लेता है । तेरापंथ को जीवन्त धर्मसंघ इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि उसका हर अवयव मजबूत है । तेरापंथ की प्रगति का श्रेय आचार्यों और त्यागी - बलिदानी साधु-साध्वियों को तो है ही किन्तु उन महान् श्रावक और श्राविकाओं को भी है जिन्होंने विविध कसौटियों में अटूट शासन-निष्ठा का परिचय दिया, अपनी सेवा और कर्त्तव्यपरायणता से शासन को गौरवान्वित किया । इसीलिए तो स्वामीजी अपनी एक रचना में लिखा है- “साध - श्रावक रतनां री माला एक मोटी दूजी नान्ही रे" । तेरापंथ के इतिहास के साथ श्रावक-श्राविकाओं का इतिहास सदा अमर रहेगा । प्रस्तुत निबन्ध में मुझे केवल प्रमुख श्रावकों का जीवन दर्शन करवाना है। श्रावकों की भी एक लम्बी श्रृंखला मेरे सामने है । इस लघुकाय निबन्ध में सभी श्रावकों का समग्र जीवन वृत्त लिख पाना असम्भव है फिर भी कुछ श्रावकों का वर्णन यहाँ प्रस्तुत हैं । मेवाड़ के प्रमुख आवक Jain Education International (१) श्री शोभजी कोठारी—ये स्वामीजी के अनन्य श्रावक थे। इनके पिता श्री भेरोजी ने केलवा के प्रथम चातुर्मास में ही स्वामीजी की श्रद्धा ग्रहण की थी। शोभजी सांसारिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में कुशल थे । इनको केलवा के ठिकाणों का प्रधान नियुक्त किया गया। एक बार किसी कारण से केलवा के ठाकुर के साथ इनका मनमुटाव हो गया । फलतः इन्हें केलवा छोड़कर नाथद्वारा जाना पड़ा। इस प्रकार बचकर भाग जाने का पता लगने पर केलवा के ठाकुर और अधिक आवेश में आ गये। वे शोभजी को किसी जाल में फँसाकर अपमानित करना चाहते थे । नावद्वारा उनकी जागीर में नहीं था वहाँ के सर्वेसर्वा गोसाई जी थे। गोसांईजी के साथ उनके सम्पर्क अच्छे थे। ठाकुर ने शोभजी पर कई अभियोग लगा दिये और गोसांई जी से उन्हें कारागार में बन्द करने का आदेश दिला दिया । शोभजी को कैदी बना लिया गया। स्वामीजी आस-पास के गाँवों में विचर रहे थे। उन्हें जब इस घटना का पता चला For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211141
Book TitleTerapanth ke Mahan Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Shravak Shravika
File Size696 KB
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