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________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ने अनेकों क्षेत्रों में विकास किया । महासती लाडांजी ने उस विकास को शतगुणित किया । साध्वियों ने शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रगति की है उसका श्रेय प्रमुख रूप से साध्वीप्रमुखाजी को ही है। वे प्रेरणास्रोत थीं। जीवन भर प्रेरणादीप बनकर जलती रहीं। सागर में गागर समाये इसमें कोई आश्चर्य नहीं किन्तु गागर में सागर समा जाए वह आश्चर्य है। साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी ने गागर बनकर जीवन बिताया किन्तु उनमें सागर लहराता रहा। जिज्ञासा जीवन का जीवन्त आधार है। आप में जिज्ञासाएँ प्रबल थीं। यत्र-तत्र जिज्ञासाओं को शान्त कर अपनी गागर को भर लेतीं। आप अभय थीं, भय था तो केवल पाप का । आचार-कौशल इसका फलित था। साध्वीप्रमुखा का पद उन्हें मिला । वे पद से शोभित नहीं थीं, पद उनसे सुशोभित हुआ। वे असामान्य थीं, पर उन्होंने सामान्य से कभी नाता नहीं तोड़ा। वे निःस्पृह थीं। उन्हें सब कुछ मिला पर उसमें आसक्त न बनीं। उनकी मृदुता, सौम्यता, निडरता और कष्ट-सहिष्णुता विलक्षण थी । उनका भौतिक शरीर रोगग्रस्त हुआ किन्तु मनोबल सदा स्वस्थ रहा । बहुत वर्ष तक निरन्तर रक्तस्राव की बीमारी ने आपकी सहिष्णुता को द्विगुणित कर दिया। चिकित्सकों ने तो कैसर तक की कल्पना कर ली। वि० सं० २०२३ में आचार्य प्रवर ने दक्षिण यात्रा प्रारम्भ की। महासती लाडांजी को बीदासर में अस्वस्थता के कारण रुकना पड़ा। व्याधि ने भयंकर रूप धारण कर लिया। जलोदर की भयंकर वेदना में भी चार-चार सूत्रों का स्वाध्याय चलता । अत्यन्त समभाव से वेदना को सहन किया। थोड़े ही महिनों में तीन बार पानी निकाला गया। डाक्टर पर डाक्टर आने लगे । सबकी आवाज थी कि इस बीमारी का आपरेशन के सिवा कोई इलाज नहीं। पर आपने स्वीकृति नहीं दी। हँसते-हँसते समरांगण में सुभट की भाँति आत्मविजयी बनीं। आपकी सहिष्णुता को देख, सुनकर महामना आचार्य प्रवर ने आपको "सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति" उपाधि से अलंकृत किया। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि के ३। बजे अनशनपूर्वक कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। 4. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी-आपका मूल निवास स्थान लाडनूं था। वि० सं० १९६८ में कलकत्ता में आपका जन्म हुआ। आपने वि० सं० २०१७ की आषाढी पूणिमा को केलवा में आचार्य तुलसी से दीक्षा ग्रहण की। साध्वीप्रमुखा का पद वि० सं० २०२८ में गंगाशहर में प्राप्त हुआ। धार्मिक परिवार में जन्म होने से बचपन से ही आपको धर्म के संस्कार प्राप्त हुए। आपके मन में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हुए, पर संकोचशीला बालिका होने के कारण सबके सामने अपने विचार प्रकट नहीं किये। वैराग्य भावना बलवती होती गई । आखिर सं० २०१३ भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी के दिन आपको श्री पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रविष्ट किया गया। आपका प्रत्येक कार्य शालीनता व विवेकपुरस्सर होता। साधना की भूमिका में निष्णात पाकर आचार्यश्री तुलसी ने आपको दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की । फलस्वरूप तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के ऐतिहासिक अवसर पर मेवाड़ में स्थित ऐतिहासिक स्थल केलवा में आपका दीक्षा संस्कार सम्पन्न हआ। दीक्षा के पश्चात् आपकी स्फूर्तप्रज्ञा और अधिक उन्मिषित हुई । एकान्तप्रियता, गम्भीरता, स्वल्पभाषण, निष्ठापूर्वक कार्य-संचालन आपकी विरल विशेषताएँ हैं। अप्रमत्तता आपका विशेष गुण है । पश्चिम रात्रि में उठकर सहस्रों पद्यों की स्वाध्याय आपका स्वभाव बन गया है। आज भी आपको 'दसवेआलिय' नाम माला, न्यायकणिका, नीति-शतकम्, जैन सिद्धान्त दीपिका, शान्तसुधारस, सिन्दुर प्रकर, 'षड्दर्शन' आदि अनेकों ग्रन्थ सम्पूर्ण रूप से कण्ठाग्र हैं। ___न्याय सिद्धान्त, दर्शन और व्याकरण का आपने गहन अध्ययन किया है । हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत भाषा पर पूर्ण अधिकार है। अंग्रेजी भाषा में भी आपकी अच्छी गति है। आपका अध्ययन आचार्य प्रवर की पावन सन्निधि व साध्वी श्री मंजुलाजी की देख-रेख हुआ। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211139
Book TitleTerapanth ki Agrani Sadhwiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusmitashreeji
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size410 KB
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