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________________ ... ....... तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५३३ . .................................................................... ...... शंकाओं का सरस राजस्थानी में समाधान प्रस्तुत किया गया है। इसका ग्रन्थमान १२४२ श्लोक परिमाण है। इसकी संपूर्ति वि० सं० १८६४, पाली चातुर्मास में हुई। (५) प्रश्नोत्तर सार्धशतक-इसमें विभिन्न विषयों पर १५१ प्रश्नों के उत्तर दिये हुए हैं। कुछ प्रश्न तात्विक हैं, कुछ प्रश्न आगमों के निगूढ स्थलों का उद्घाटन करने वाले और कुछ मुनि-चर्या से सम्बन्धित हैं। इसका ग्रन्थान १५७८ श्लोक परिमाण है । इसकी रचना वि० सं० १८६४ में होनी चाहिए। राजस्थानी में तत्त्व की गम्भीर चर्चा की जा सकती है। उसमें इसकी क्षमता है। उसका एक उदाहरण यह है ‘पन्नवणा पद १७ में फुसमाण, अफुसमाण गति, ते केहन कहीज' (ओ प्रश्न) 'अफुसमाण गाही जे सभी श्रेणी अने जे ठांमे रह्यो हुँतो, जेतलाज आकाश प्रदेश फरस्यां हुंता अने तिहां थी गति करै तेतलाज आकाश प्रदेश फरसतो चाल ते अफुसमाण गति अने फुसमाण ते नवा नवा बांका प्रदेश फरस, ओछा अधिक फरस ते फुसमाण गति । सिद्ध नी अफुसमाण गति छ । 'दुहउ खुहागई ते कुण ? बेहुं ना अंतर ने ठामै विग्रह गति फिरै फरस ते 'दुहउ खुहागई' विहुं आकाश प्रदेश फरसै छ जे माटे ॥१ (६) चरचा रत्नमाला---इस कृति में आपने विभिन्न स्थानों पर चर्चा के रूप में हुए प्रश्नों का संकलन कर उत्तर प्रस्तुत किये हैं । यह अधूरी कृति है। इसका ग्रन्थमान १४६१ श्लोक परिमाण है। ध्यान योग श्रीमज्जयाचार्य धर्म-संघ के प्राणवान अनुशास्ता होने के साथ-साथ अध्यात्मयोगी भी थे। जब सब सो जाते तब आप जागृत होकर ध्यान में लीन हो जाते। उनका अध्यात्म प्रखर था। वे प्राणों को सूक्ष्म कर, कपाल में ले जाते और वहाँ उसे स्थिर कर देते। यद्यपि उनकी ध्यान-प्रक्रिया के विषय में विशेष उल्लेख नहीं है फिर भी उनके द्वारा लिखित कुछेक स्फुट पन्नों से तथा उनके द्वारा रचित दो ध्यानों-बड़ा ध्यान और छोटा ध्यान, से यह तथ्य ज्ञात होता है कि वे महान् ध्यानी थे। रंगों के आधार पर ध्यान करना भी आपको ज्ञात था । और इस विधा से ध्यान करते भी थे। दूसरी बात यह कि श्रीमज्जयाचार्य स्वाध्याय-प्रेमी थे । स्वाध्याय करने की उनकी प्रवृत्ति स्वयं में एक आश्चर्य है । तेरापंथ के पाँचवें आचार्य मघवा गणी ने उनकी स्वाध्यायशीलता की एक नोंध स्वरचित 'जयसुजश' में प्रस्तुत की है। उसके द्वारा यह जाना जाता है कि आपने अपने आठ वर्षों में लगभग ८७ लाख गाथाओं की स्वाध्याय की थी। जिस व्यक्ति का जीवन इतना स्वाध्यायरत हो वह सहज ही ध्यान-कोष्ठ में जाने का अधिकारी हो जाता है । जो इतने स्वाध्यायशील होते हैं उनकी बहुश्रुतता और गीतार्थता का कहना ही क्या ? (क) बड़ा ध्यान-इसके प्रारम्भ में बैठने की विधि और ध्यान में प्रवेश करने से पूर्व ध्यान-साधक को मन की एकाग्रता के लिए क्या करना चाहिए और फिर ध्यान को कैसे एकाग्र करना चाहिए, इसका निर्देश है । इसमें अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँच पदों को ध्यान का आलम्बन बनाकर, इनके भिन्न-भिन्न रंगों पर ध्यान करने की प्रक्रिया का निर्देश है। इसका ग्रन्थमान १५० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण है। इसका रचना काल अज्ञात है । इसकी पदावली ललित और सुरम्य है 'प्रथम तो पद्मासनादिक आसन थिर करी काया नो चंचल पणो मेटी ने मननो पिण चंचल पणो मेटणो। पछे मन बाहिर थकी अंदर जमावणो। विषयादिक थकी मन ने मिटाय ने एकत्र आणणो । ते मन ठिकाणे आणवा निमित श्वासासूरत लगावणी। प्रवेश में 'सकार', निर्गमन में 'हकार' । 'सोहं' एसो शब्द अणबोल्या उच्चरै ।......... १. प्रश्नोत्तर सार्धशतक, प्रश्न १३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211138
Book TitleTerapanth ka Rajasthani Gadya Sahtiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size587 KB
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