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तीर्थंकरों के लांछन और शासन देवता
बालचन्द जैन
जैन प्रतिमा विज्ञान के अध्येता के सम्मुख निम्नलिखित दो प्रश्न अक्सर रखे जाया करते हैं, यथा
१. तीर्थंकरों के साथ उनके लांछन, वृषभ, गज आदि कब से संलग्न हुए? और
२. उनकी प्रतिमाओं के साथ शासन देवताओं, यक्षों और यक्षियों की प्रतिमाएं कब से जोड़ी जाने लगीं ?
लांछनों का प्रारंभ
जैन मूर्तिकला के प्रारम्भिक काल में तीर्थकर प्रतिमाओं के -साथ न तो कोई चिह्न या लांछन बनाए जाते थे और न शासन देवतावृन्द ही संयुक्त किए जाते थे। इस कथन की पुष्टि मथुरा तथा अन्य स्थानों से प्राप्त हुई लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं 'करती हैं।
जैनों के प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थों एवं साहित्यिक रचनाओं में भी प्रचलित लांछनों अथवा शासन देवताओं का नामोल्लेख नहीं मिलता। प्रारम्भिक काल में विभिन्न तीर्थंकर प्रतिमाएं प्रतिष्ठा के समय उन पर लिखे गए लेख से ही पहचानी जाती थी कि वे किस तीर्थंकर की प्रतिमा हैं । इतना अवश्य था कि ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं लेख के अभाव से भी पहचानी जा सकती थीं क्योंकि ऋषभनाथजी के कन्धों पर केशगुच्छ लहराते हुए दिखाए जाते थे और सुपार्श्वनाथ तथा पार्श्वनाथ के मस्तक पर नाग के पांच या सात फणों का छत्र सुशोभित कर दिया जाता था ।
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आदिपुराण, उत्तरपुराण और पद्मपुराण जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में भी तीर्थकरों के चिह्नों की सूची नहीं मिलती। आदि पुराण ( १।१५) में प्रथम तीर्थंकर को वृषभध्वज अवश्य कहा गया है। किन्तु अन्दों के संबंध में उल्लेख नहीं है। तिलोमपत्ति में
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तीर्थंकरों के लांछनों की सूची मिलती है किन्तु अनेक विद्वानों ने उस अंश के प्रक्षिप्त एवं पश्वात्कालीन होने की शंका की है।
राजगृह के वैभारगिरि की एक गुप्तकालीन तीर्थंकर प्रतिमा को बाईसवें तीर्थंकर नेमीनाथ की प्रतिमा माना गया है क्योंकि उसके पादपीठ पर चक्रपुरुष के दोनों ओर शंख बने हुए हैं। यदि ये शंख केवल मांगलिक चिह्न न होकर नेमीनाथ की पहचान के लिये बनाये गये लांछन रूप हैं तो मानना पड़ेगा कि विभिन्न तीर्थंकरों के लांछन गुप्तकाल में प्रयुक्त किए जाने लगे थे। सीरापहाड़ी की एक आदिनाथ प्रतिमा के पादपीठ पर सिंहासन के सिंहों के स्थान पर दोनों ओर वृषभ की आकृतियां बनी हुई हैं। यह उनके वृषभासन की द्योतक है। अथवा उनके लांछन विशेष की ओर संकेत करती है। यह विचारणीय है। जो भी हो, इतना तो निश्चित ही है कि गुप्तकाल से पूर्व की तीर्थंकर प्रतिमाओं पर लांछन नहीं बनाए जाते थे और गुप्तकाल में भी सभी तीर्थकरों के चिह्न निश्चित नहीं किए जा सके थे ।
शासन देवता
वर्तमान जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर का एक शासन यक्ष और एक शासन यक्षिणी हुआ करती है । इन यक्ष पक्षिणी की सूचियां दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों में मिलती हैं । यक्षों के नामों के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में अधिक मतभेद नहीं है पर यक्षिणियों के नामों की जो सूचियां इन दोनों सम्प्रदायों में वर्तमान में प्रचलित हैं उनमें अधिकतम नामों के संबंध में भिन्नता है ।
अधिकांश विद्वानों का मत है कि जैन मूर्तिकला में चतुर्विंशति यक्ष और उतनी ही यक्षियों की कल्पना नौंवी शताब्दी के आसपास की गई थी। श्वेताम्बर ग्रन्थों में शासनदेवताओं की संपूर्ण सूची सर्वप्रथम हेमचन्द्राचार्य के अभिधान चिन्तामणि में मिलती है और
राजेन्द्र- ज्योति
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