SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथार्थ रूप में यह विशेषण श्री अरिहंत-तीर्थकर परमात्मा में ही चरितार्थ होता है। 4. महासार्थवाह-(अर्थात् महान संरक्षक सार्थवाही) पूर्वकाल में अर्थात् प्राचीन समय में धनादि द्रव्यों से समृद्ध व्यापारी लोक पुरुषार्थ नथा व्यापार कुशल सफलता प्राप्ति हेतु शुभ उद्देश्य से देश-विदेशों में दूर-दूर तक जाया करते थे। जिसमें धनहीन, दरिद्र, निःसहाय वणिक पुत्रों को अनेक प्रकार की सहायता देकर अपने साथ दूर-दूर के प्रदेशों में या द्वीपों में ले जाया करते थे। ___वे उन आश्रितजनों को भयंकर जंगलों में, विकट मार्गों में सुन्दर संरक्षण देकर चोर, डाक आदि दुर्जनों से अपने आश्रितों को बचाकर यथोचित स्थानों में भेज दिया करते थे / धनार्जन करने हेतु देशान्तर में जाने की तीव्र इच्छावाले ऐसे आधारहीन, साधनहीन जनों को उदारचित्त चरित्रवान व्यापारी आश्रय देकर उनके मनोरथ पूर्ण करने के लिए अनेक प्रकार की संपत्ति सुविधा भी देते हैं। इसीलिये ऐसे श्रीमंत धनवान परोपकारी व्यापारी का नाम प्राचीनकाल में राज्य संचालक एवं राजा महाराजाओं के द्वारा सार्थवाह रखा जाता था। यह उस समय बहत मानप्रद उपाधि मानी जाती थी / सार्थवाह पद विभूषितजनों का सम्मान समाज में अच्छी तरह से किया जाता था / अर्थात् जैसे बड़े-बड़े श्रीमंत धनवान व्यापारीजनों को मानद विरुद्ध सार्थवाह मिलता था उसी प्रकार श्री अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा भी इन संसारी जीवों को इस जीवन यात्रा में अत्यन्त आवश्यक ऐसी सम्यक् श्रद्धादिक महामूली संपत्ति का दान देकर राग-द्वेषादिक चोर डाक, लुटेरों से संरक्षणपूर्वक जन्म मरणादि रूप हिंसक पशुओं से बचाते हैं तथा संसाररूपी महा भयंकर वन-जंगलों से योग और क्षेम करते हुए कुशलतापूर्वक भव्य जीवों को पार उतारने वाले हैं / इतना ही नहीं किन्तु शाश्वत सुख के धाम रूप मोक्ष स्थान में पहुंचा देते हैं। समस्त विश्व के प्राणिमात्र के अद्वितीय संरक्षक होने से इनकी लोकोत्तर आत्मशक्ति का परिचय देने हेतु शास्त्रकारों ने अपने शास्त्र में कहा है कि "अर्हन्तो हि महासार्थवाहाः" अर्थात् श्री अरिहंत तीर्थंकर भगवंत ही महा सार्थवाह हैं / . इस प्रकार की उपमा वास्तविक तथा अत्यन्त यथार्थ समुचित (1) महागोप की उपमा "जीवनिकायागावो, जंतेपालेति महागोवा / / मरणाइभयाहि जिणा, निव्वापावणं च पावेंति / / (श्री आवश्यक नियुक्ति-गाथा 916) (2) महामाहण को उपमा "सच्चे पाणा न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिवित्तव्वा न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा // " (श्री आचारांग सूत्र, अध्ययन-४ उद्देश्य-१, सूत्र 1) (3) महानिर्यामक की उपमा "णिज्जामगरयणायां, अमूढनाणमईकप्पधारणं / पदामि विणय' पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं / / (श्री आवश्यकनियुक्ति-गाथा 914) (4) महासार्थवाह की उपमा "पावंतिणि बुइपुरं, जिणोवईल्डेणं चेव मग्गेणं / अडवइ देसिअतं, एवं णेयं जिणिदाणं / / (श्री आवश्यक नियुक्ति-गाथा 906) इस प्रकार शास्त्रकार महर्षियों की वर्णन की हुई ये चारों उपमा अत्युत्तम हैं / श्री उपासक दशांग आदि विद्यमान आगमग्रंथों में भी विशेष वर्णन दृष्टिगोचर होता है। ऐसी लोकोत्तर उपमाओं से समलंकृत श्री अरिहंत तीर्थकर भगवन्तों का विश्व के समस्त प्राणियों के ऊपर कितना बड़ा असीम उपकार है जिसका सर्वथा संपूर्ण वर्णन करना केवलज्ञानी भगवंत से भी असंभव है। अनंत गुणों के भंडार तरणतारण देवाधिदेव ऐसे श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा के प्रति सच्ची कृतज्ञता तथा आदर भाव को स्पष्ट रूप में प्रकट करने हेतु इनकी अहर्निश पूजाभक्ति,श्रद्धा आदि कार्य में तल्लीन रहना हम सबों का परम कर्तव्य है। श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्मा का ध्यान अपनी आत्मा को उत्तम ज्ञान के अनुपम अमी छांटणे पूर्वक पवित्र करता है / लोकोत्तर अद्वितीय अरिहंत तीर्थंकर भगवन्तों के चरण-कमलों में सद्भावना की भव्य अंजली समर्पण करने वाला प्राणी अवश्य ही मोक्ष मार्ग का साधक बनता है। अन्त में अपने सब कर्मों का क्षय करके मोक्ष के शाश्वत सुख का भागी होता है। "महागोपादि चार उपमाओं से समलंकृत ऐसे श्री अरिहंत तीर्थकर परमात्माओं को हमारा हार्दिक अहर्निश कोटिश: वंदन शास्त्रोक्त उपमा की गाथाएं शास्त्रकारों ने अपने-अपने शास्त्र में लोकोत्तर ऐसे श्री अरिहंत तीर्थकर भगवंत को "महागोफमहामाहण, महानिर्यामक और महासार्थवाह" इन चार लोकोत्तर उपमाओं के द्वारा वर्णन किया विद्यमान आगम ग्रन्थों में भी उपर्युक्त भावों की पूरक अनेक गाथाएं देखने में आती हैं। जिनमें से कुछ गाथाएं यहां पर दी गई हैं: हो?" बी.नि.सं. 2503 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211126
Book TitleTirthankar Parmatmao ki Lokattar Char Upmaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherZ_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
Publication Year1977
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size447 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy