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________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ देखकर न देखने का बहाना करती है तब मुझे ऐसा जान पड़ता है कि वस्तुतः उसके हृदय में मुझे देखकर आनंद लहरे मारता है। वह ऊपर ऊपर से विरक्ति का प्रदर्शन करती है, किंतु हृदय में गहन प्रेम का पोषण करती है।' बाद में अपने प्रेमी के अनुनयपूर्ण मुँह को देखकर वह भी द्रवीभूत हो उठती है और अंत में वह अपनी आँखों द्वारा विवाह की सम्मति भी दे देती है। फिर उन दोनों का गोपनीय विवाह हो जाता है। गोपनीय विवाह हो जाने पर भी यह घटना दोनों के माता-पिता से गुस राखी गयी। दोनों किसी ऐसे प्रसंग की प्रतीक्षा में रहे जिससे कि बिना किसी कठिनाई के दोनों के माता-पिता परस्पर मिलने की अनुमती दे दें, परंतु बहुत समय तक वह शुभ प्रसंग नहीं आया। अंत में यह प्रेमी उस समय तमिल देश में प्रचलित एक बर्बर उपाय की शरण लेता है। वह डंबल सहित कुछ ताल के पत्ते काटकर एक गहर बनाता और उस पर घोड़े पर सवार होने की तरह बैठता है। उसी अवस्था में उसके कुछ मित्र प्रेम-संगीत गाते हुए उसे गाँव के भीतर ढोकर ले जाते हैं। एक ओर बेचारा युवक नुकीले ताड़पत्रों पर छटपटाता रहता है, दूसरी अोर गाँव के अनेक बालक और युवक उस प्रेमी युवक को चारों ओर से घेरकर अनेक प्रकार के वाक्बाणों से उसके हृदय को छिदते रहते हैं। बीच बीच में उसकी प्रणयिनी का भी नाम लिया जाता है। अंत में अपकीर्ति के डर से प्रेमिका के माता-पिता उस प्रेमी के साथ अपनी लड़की का विवाह कर देते हैं। __कुछ समय तक नवीन दंपति को परस्पर के मधुमय साहचर्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है। थोड़े ही समय तक वे अानंदोपभोग करते हैं कि इतने ही में निरानंद की काली घटा उनके प्रेम के नभोमंडल को घेर लेती है। राजा की ओर से युवक के पास शीघ्र ही युद्ध में सम्मिलित होने के लिए बुलाहट अाती है। इस अरुचिकर घटना से थोड़ी देर के लिए दोनों विचलित हो उठते हैं। युद्ध में जाने की आज्ञा मांगने पर युवती कहती है--मुझे छोड़ कर जाने पर मेरी मृत्यु निश्चित है, यदि अलग होने की बात के अतिरिक्त कुछ कहना हो तो कहो। इसके सिवाय यदि जल्दी लौटने की बात कहना चाहते हो तो वह भी उसे ही कहो जो तब तक जीवित रहने की अाशा रखती हो।' युवती द्वारा इतना अनुनय-विनय किया जाने पर भी युवक विदाई की प्रार्थना करके चल देता है। इसके बाद तरुणी की दारुण विरह-यातना का वर्णन ग्यारह परिच्छेदों में किया गया है। वियोगावस्था में वह अपने उद्गार इस प्रकार प्रकट करती है-'मैं श्राज तक जीती हूँ, केवल उनके प्रत्यागमन की आशा से। शीघ्र उनके आने की चिंता से मेरा हृदय अधीर हो उठता है। मैं अहर्निश यही कामना करती हूँ उनकी रूप-सुधा-पान कर मेरे उपोषित नेत्र तृप्त हो जायँ। मेरे शीर्ण बाहु की विवर्णता दूर हो जाय। अग्नि में घृत के समान जिसका चित्त प्रेम के उत्ताप से पिघल गया है, क्या वह प्रियतम के साथ विवाद कर सकती है?' उधर युद्ध-स्थल में नायक भी घर लौटने के लिए छटपटाता है। वह तत्काल उड़कर घर पहुँचना चाहता है। अपने वियोग में पत्नी की दशा की कल्पना कर वह कातर और भयभीत हो उठता है। वह मन ही मन कहता है-'मेरे पहुँचने के पहले ही यदि उसका कुसुम पल्लव हृदय टूट गया तो घर पहुँचने से क्या लाभ?' युद्ध से लौटकर जब उसका हृदय-देवता घर पहुँचता है, तब प्रेमिका दौड़कर उसके सामने नहीं श्राती। वह मान करके बैठ जाती है । पाँच परिच्छेदों में कवि ने पाठकों को मान के लीला-माधुर्य का श्रास्वादन कराया है। इन परिच्छेदों को पढ़ने पर एक एकांकी को पढ़ने का आनंद प्राप्त होता है। रसपरिपाक के लिए एक तृतीय व्यक्ति की सृष्टि की गयी है-वह है नायिका की सखी। जिसे संबोधन कर नायक तथा नायिका अपने अपने मनोभाव व्यक्त करते हैं और सखी आवश्यकतानुसार बीच बीच में कुछ कह कर दोनों में सुलह कराती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211120
Book TitleTiruvalluvar tatha unka Amar Granth Tirukkural
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherZ_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
Publication Year1956
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size711 KB
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