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चतुर्थ खण्ड / ३४६
केवल भज केवल हुआ, चुगे हंस जहां हीर। आद भजो जिन रिखबदेव, अंत भजो महावीर ॥
"केवल भज केवल हमा" द्वारा संत ने इस पद में एक बहुत गहरी बात कही है। ध्याता जिस पालम्बन को लेकर ध्यान करता है, जिसका ध्यान करता है, जिस ध्येय में अभिरत . होता है, तन्मयतापूर्ण ध्यानावस्थ होता है, अन्ततः वह वैसा ही हो जाता है। यह वह दशा है, जहां ध्याता और ध्येय का भेद अपगत हो जाता है, मिट जाता है। संत कहते हैं-केवली को भजने वाले केवली हो गये-कैवल्य प्राप्त कर गये, कैवल्य प्राप्त करते हैं। सन्त की कैवल्य-भाव में, तन्निरूपक शब्दावली में अगाध श्रद्धा है। जब भी वे उस सन्दर्भ में कुछ कहने को उद्यत होते हैं, भाव-विभोर हो उठते हैं।
कलिजुग बारो मोषको, भरतखंड के मांय, भजन करे सो जीव रे वार उपजे आय । वार उपजे आय ग्यान केवल घट आवे, और दर्शन कर-कर मोष, कोड़ा लख जावे ॥ सुखराम चौबीसी प्रकटे सतजुग त्रेता माय, कलजुग बारो मोख को भरत खंड के मांय ।।
ऋषभदेव तांमे तत छाण्यो, छछम भेद में तत पिछाणवा परगट कियो जग में, आणी विध, चोबीस तीर्थकरा जाणी।
यो सब देव करे पछतावा, यो नरतन कब पावा। जन्म मरण काल भय मेट र, परम धाम कब जावां । अहो प्रभु ! मानव-तन दीजे, भरतखंड के मांही। केवल भक्ति करां संत सेवा, और करां कछु नाही ॥
हण भुरकी पैगंबर ताऱ्या, और मुनि जन ज्ञानी । ऋषभदेव तीर्थकर ताऱ्या भरत भरत की रानी। ऋषमदेव भुरकी दे ताऱ्या, पांच कोड नर-नारी ॥
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