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चतुर्थ खण्ड | ३४४
इसी पद में संत ज्ञान तथा दर्शन की चर्चा करते हैं। दर्शन शब्द जैन परम्परा में बड़ा महत्त्वपूर्ण अर्थ लिए हुए है। सामान्यतः दर्शन का अर्थ "देखना" या "तात्त्विकज्ञान" है। जैन वाङमय में यह शब्द श्रद्धान के अर्थ में प्रयुक्त है। श्रद्धान का अर्थ प्रास्था या विश्वास है। जीवन में सबसे पहले श्रद्धान का शुद्ध होना अति आवश्यक है। श्रद्धान-शुद्धि के बिना व्यक्ति सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मान लेता है। यदि श्रद्धान शुद्ध नहीं है, सम्यक नहीं है तो ज्ञान भी शुद्ध या सम्यक् नहीं होगा। जैनदर्शन में तो सम्यक श्रद्धाहीन पुरुष के ज्ञान को अज्ञान की संज्ञा दी गई है। वहाँ प्रज्ञान का प्रयोग ज्ञान के प्रभाव में नहीं है, अपितु कुज्ञान या कुत्सित ज्ञान के अर्थ में है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकुचारित्रइन तीनों को जैन परम्परा में "रत्नत्रय" कहा जाता है। सन्त ने यहाँ ज्ञान के साथ-साथ जिस दर्शन शब्द को जोड़ा है, वह उनकी अति गहन आध्यात्मिक अनुभूति या उपलब्धि का विषय है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से जागतिक पदार्थों का जो परिचय प्राप्त होता है, वह निश्चय हो यथार्थ होने के कारण शोभनीय और स्तवनीय होता है। जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र द्वारा माया को, जो ब्रह्मलोक की ओर जाते साधक को मार्ग में लूट लेने वाले बटमार "दस्यु" की तरह है, पराभूत कर डालते हैं, वे वस्तुत: अपनी जीवन-यात्रा को सफल कर डालते हैं। इस माया को पछाड़ने की क्षमता तब आती है, साधक जब सद्गुरु की शरण अपनाता है, जिन-राग-द्वेष विजेता की भूमिका अधिगत कर लेता है।
आश्चर्य है, सन्त सुखराम के प्रतिपादन में प्राहंत परम्परा के साथ कितना सुसंगत समन्वय है। जिन शब्द जैन परम्परा के विशिष्टतम शब्दों में है।
ऊपर जैनदर्शन सम्मत ज्ञान के भेदों पर चर्चा हुई है। तीर्थंकर मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान इन पांचों के धारक होते हैं । वैसे केवलज्ञान में, जो अपरिसीम है, सभी ज्ञान-भेदों का समाहार हो जाता है। वाणी में आत्म-परिशोधन के सन्दर्भ में एक पद है
जामो है भारी भारी, कोई धोवे संत हजारी। जो धोया जो अमर हुआ रे, आवागमन निवारी॥ सुर नर मुनि जन शंकर बंछ, मिलनो दुर्लभ विचारी ॥१॥ जामा माही अनंत गुण होई, जो कोई लखे विचारी। गेली जगत धो नहीं जाणे, उलटो कियो खुवारी ॥२॥ जामो है भारी.... कर सुधुपे ने लातां खुदीज्यां, कीमत कठन करारी । ज्यां धोया ज्यां अघरज धोया, प्रेम नाम जल डारी॥ जामो है भारी....
॥३॥ जल सूधुपे न साबुन दियां पायण शिला पिछारी। ऋषियां मुनियां सिद्धां पीरा धोयो नहीं लिगारी ॥ जामो है भारी....
॥४॥ धोबी करोड़ निनाणु खसिया, बाल जाल गया फाड़ी। अनन्त कोट संतां मिल धोयो, कस रज भागे सारी ॥५॥
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