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तत्त्व-चिन्तन के सन्दर्भ में अनुभूतिपरक सत्य का एक अद्भुत उपक्रम | ३४१
भव-जन्म-मरण-आवागमन के बीज को उत्पन्न करने वाले-जिनसे जन्म-मरण का चक्र प्रादुर्भूत होता है, वे राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि जिनके क्षीण हो गए हैं, अर्थात जो राग-द्वेष आदि से प्रतीत हैं, भवचक्र को लांघ चके हैं, वे ब्रह्मा, विष्ण, शिव या जिन जिस किसी नाम से अभिहित हों, उन्हें मेरा नमस्कार है।
निश्चय ही शाश्वत सत्य पर प्राधत भारतीय चिन्तनधारा का यह एक अदभत, अनुपम पद है । सत्य के बागात्मक परिवेशों में वैविध्य या अनक्य संभावित है, किन्तु वह विसंगत नहीं होता। विसंगति पार्थक्य है। संगति या समन्विति भिन्नता के बावजद अपार्थक्य है। विभिन्न आम्नायों द्वारा स्वीकृत, प्रतिपादित शाश्वत सत्यमूलक सिद्धान्त विवक्षा-भेद से शब्दात्मक अभिधानों की असमानता होते हए भी यथार्थ की कोटि से बाहर नहीं जाते।
जैन-परम्परा में दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान, कर्म आदि का बड़ा गहन विवेचन हुआ है। वहाँ ज्ञान के पांच भेद माने गये हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान तथा केवलज्ञान । धार्मिक साहित्य में इनका बड़ा विशद विवेचन हुया है। मतिज्ञान ज्ञान की प्रारंभावस्था है तथा केवलज्ञान चरमावस्था। प्रात्मा अनन्त ज्ञानमय है। ज्ञान पर जो कार्मिक आवरण हैं, ज्ञान को ढकने वाली पत हैं, वे ज्यों-ज्यों हटती जाती हैं, आत्मा का ज्ञानमय स्वरूप उत्तरोत्तर उद्घाटित, उद्भासित होता जाता है। जब ज्ञान को ढकने वाले समस्त कर्मावरण सर्वथा ध्वस्त, विनष्ट या क्षीण हो जाते हैं, तब ज्ञान की समग्रता अभिव्यक्त हो जाती है । ज्ञातृरूप प्रात्मा का तब ज्ञेय से सीधा सम्पर्क निष्पन्न हो जाता है । इन्द्रियां, मन आदि माध्यम वहाँ सर्वथा निरपेक्ष हो जाते हैं। ऐसी स्थिति तब बनती है, जब राग, द्वेष प्रादि समस्त प्रात्म-परिपंथी बाधक तत्त्व उच्छिन्न हो जाते हैं । केवलज्ञान वह है, जहाँ वर्तमान, भूत व भविष्य के भावों को प्रात्मा जानती है । यह प्रात्मा की परम उच्चावस्था है । संतवर सूख राम अपने एक पद में ज्ञान की चर्चा के सन्दर्भ में कहते हैं
मतज्ञान माने नहीं, श्रुतज्ञान में न्याव, अवधज्ञान में सूझसी, लाख कोश को डांव । लाख कोश को डांव, मन परचे सोहि करह, आ केवल ही पर्ख, अमर फल खाय न मरह॥ सुखराम वर्ष वदित हुआ, नरके उपजे भाव । मतज्ञान माने नहीं, अतज्ञान में न्याव ॥
ब्रहम ध्यान बिन ध्यान सब, माया मिलण उपाय, बहम प्रेम बिन प्रेम सो, सब कर्मों की खाय । सब कर्मों की खाय, नाम केवल बिन सारा, सब इन्द्रयां का भोग, करण कारण विचारा ॥ कोई शब्द के प्रेम बिन, परम मोख नहीं जाय ।
ब्रहम ध्यान बिन ध्यान सब, माया मिलण उपाय ॥ जीवन का परम प्राप्य वीतरागभाव, कैवल्य या केवलज्ञान है। मतिज्ञान मननात्मक होता है। इन्द्रिय, मन प्रादि बाह्य उपकरणों द्वारा जो हम जानते हैं, वह मतिज्ञान है।
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