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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं उपयोग एकरस होकर प्रवृत्त होते हैं उसे निर्विकल्प ध्यान कहते हैं और जहाँ ध्येय और आलम्बन के आश्रय से विचाररूप उपयोग की प्रवृत्ति होती है उसे सविकल्प ध्यान कहते हैं। स्वानुभूति और निर्विकल्प धर्मध्यान इनमें शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं। इतना अवश्य है कि जो मिथ्यादृष्टि जीव स्वभाव सन्मुख होकर सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करता है उसके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय होनेवाले निर्विकल्प ध्यान को स्वानुभूति कहते है । आगे सातवें आदि गुणस्थानों से उसी का नाम शुद्धोपयोग है। यद्यपि प्रत्येक संसारी जीव के कषाय का सद्भाव दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है, परन्तु निर्विकल्प धर्मध्यान और पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान में उसे अबुद्धिपूर्वक स्वीकार किया गया है । शंका-शुक्ल ध्यान का प्रथम भेद सवीचार है। उस में अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति नियम से होती है। एसी अवस्था में उक्त शुक्लध्यान में तथा उससे पूर्ववर्ती निर्विकल्प धर्म ध्यान में शुद्धात्मा ध्येय और शुद्धात्मा आलम्बन कैसे बन सकता है और वह न बनने से निरन्तर शुद्धनय की प्रवृत्ति कैसे बन सकती है? समाधान-यद्यपि शुक्ल ध्यान के प्रथम भेद में अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति होती है, परन्तु निरन्तर स्वभाव सन्मुख रहने के कारण अन्य ज्ञेय पदार्थ से इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिये उसके इस अपेक्षा से शुक्ल ध्यान के प्रथम भेद में भी शुद्धात्मा ध्येय और शुद्धात्मा आलम्बन बनकर शुद्धात्मा के साधक शुद्धात्मानुभव स्वरूप शुद्धनय की प्रवृत्ति बन जाती है। श्री समयसार आस्रव अधिकार में छमस्थ ज्ञानीके जघन्य ज्ञान होने से उसका पुनः पुनः परिणाम होता है और इसलिये उसे जहाँ ज्ञानावरणादि रूप कर्मबन्ध का भी हेतु कहा गया है, वहाँ इस के मुख्य कारण का निर्देश करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र देवने बतलाया है कि जो ज्ञानी है वह बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष मोहरूप आस्रव भाव का अभाव होने से निरास्रव ही है। किन्तु वह भी जबतक ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट रूप से देखने जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता हुआ जघन्यरूप से ही ज्ञानको देखता जानता और आचरण करता है तब तक उसके भी, जघन्य भाव की अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस अन्यभावोत्पत्ति के द्वारा अनुमीयमान, अबुद्धि पूर्वक कलङ्कविपाकका सद्भाव होने से पुद्गल कर्मबन्ध होता है। (समयसार गाथा १७२ आत्मख्याति टीका) यह तो स्पष्ट है कि ज्ञानी सदाकाल आस्रव भाव की भावना के अभिप्राय से रहित होता है, इस लिये उसके सविकल्प अवस्था में भी राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक ही स्वीकार की गई है, निर्विकल्प अवस्था में तो वह अबुद्धिपूर्वक होती ही है। फिर भी रागभाव चाहे बुद्धिपूर्वक हो और चाहे अबुद्धिपूर्वक, उसके सद्भाव में बन्ध होता ही है। इसका यहाँ विशेष विचार नहीं करना है। यहाँ तो केवल इतना ही निर्देश करना है कि ज्ञानी के ज्ञेय में अभिप्रायपूर्वक कभी भी इष्टानिष्टबुद्धि न होने से वह ध्यान काल में निर्विकल्प स्वानुभति से च्युत नहीं होता। इसलिए उस के शुद्धनयस्वरूप शुद्धोपयोग की प्रवृत्ति बनी रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211095
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Tikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shatri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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