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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कपन से या इष्टानिष्टपन से बुद्धिपूर्वक परलक्षी या पराश्रित ज्ञान परिणाम है और स्वरूप क. वेदन काल में अपने उपयोग परिणामरूप से पर भी जानने में आना ज्ञान का स्व-पर प्रकाशकपना है । शंका: - ज्ञान के उपयोग परिणाम की ऐसी स्थिति कहाँ बनती है ? समाधान: - केवल ज्ञान में 1 ४८ शंका:: -- छद्मस्थ के स्वरूप का वेदन करते समय जो उपयोग परिणाम होता है उसमें ऐसी स्थिि बनती है कि नहीं ? समाधानः--छद्मस्थ के स्वसन्मुख होकर स्वरूप का वेदन करते समय प्रमाण ज्ञान की प्रवृत्ति होकर नयज्ञान की प्रवृत्ति होती है, इसलिये उस काल में उपयोग में पर गौण होने से लक्षित नहीं होता । पण्डितप्रवर आशाधरजी (अनगारधर्मामृत, अध्याय, श्लोक १०८ - १०९ स्त्रोपस टीका में) लिखते हैंतदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्य - मध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशेन शुद्धनयरूपः शुद्धोपयोग वर्तते । अर्थ — तदनन्तर अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदरूप विवक्षित एक देशरूप से शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग प्रवर्तता है । इसी तथ्य को सुस्पष्ट करते हुए वे इसी स्थल पर आगे लिखते हैं अत्र च शुद्धये शुद्धबुद्वैकस्वभावो निजात्मा ध्येयत्तिष्ठतीति । शुद्धध्येयत्वाच्छद्भावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च भाव संवर इत्युच्यते । एष च संसारकारण- भूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यावदशुद्धो न स्यात् नापि फलभूतकेवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवच्छ्रुद्धः स्यात् । किन्तु ताभ्यामशुद्ध–शुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयरत्नन्नयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेश निवारणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते । और यहाँ पर शुद्धय में शुद्ध, बुद्ध, एकस्वभाव निज आत्मा ध्येय है इसलिए शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध का अवलम्बन होने से तथा शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग बन जाता है । इसी का नाम भाव-संवर है । यह संसार के कारणभूत मिथ्यात्व और रागादि अशुद्ध पर्यायों के समान अशुद्ध नहीं है और फलभूत केवलज्ञान लक्षण शुद्ध पर्याय के समान शुद्ध भी नहीं है । किन्तु उन दोनों अशुद्ध और शुद्ध पर्यायों से विलक्षण शुद्ध आत्मानुभूतिरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक मोक्षकारण एक देश व्यक्तिरूप और एकदेश निवारण तीसरी अवस्थारूप कहाँ जाता है । यहाँ अप्रमत्त संयम नामक सातवें गुणस्थान से शुद्धोपयोग की प्रवृत्ति का ज्ञापन किया गया है और सातवें गुणस्थान में धर्म ध्यान होता है, क्योंकि आरोहण के पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों शुक्लध्यान होता है ऐसा आगमवचन है ? अतः इस कथन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धर्मध्यान सविकल्प और निर्विकल्प के भेदों से दो प्रकार का होता है । जहाँ शुद्धात्मा ध्येय, शुद्धात्मा आलम्बन और तत्स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211095
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Tikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shatri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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