________________ 196 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड जाये, तब तक यह हानिकारक भी सिद्ध हो सकती है। णमोकार मन्त्र का स्मरण इस प्रकार का अमोघ अस्त्र है, जिसके द्वारा बचपन से हो व्यक्ति अपनो मूल प्रवृत्तियों का मागांन्तरीकरण कर सकता है। चिन्तन करने की प्रवृत्ति मनष्य में पायी जाती है। यदि मनुष्य इस चिन्तन की प्रवृत्ति में विकारी भावनाओं को स्थान नहीं दे और इस प्रकार के मंगल वाक्यों का ही चिन्तन करे, तो चिन्तन प्रवृति का यह सून्दर मार्गान्तरीकरण है। यह सत्य है कि मनुष्य का मस्तिष्क निरर्थक नहीं रह सकता है, उसमें किसी न किसी प्रकार के विचार अवश्य आवेंगे। अतः चरित्र भ्रष्ट करने वाले विचारों के स्थान पर चरित्र वधक विचारों को स्थान दिया जाये, तो मस्तिष्क की क्रिया भी चलती रहेगी तथा शुभ प्रभाव भी पड़ता जायेगा। ज्ञानार्णव में शभचन्द्राचार्य ने बतलाया है कि समस्त कल्पनाओं को दूर करके अग्ने चैतन्य और आनन्दमय स्वरूप में लीन होना, निश्चय रत्नत्रय को प्राप्ति का स्थान है। जो इस विचार में लीन आनन्दमय हूँ, शुद्ध हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, सनातन हूँ, परमज्योति ज्ञान प्रकाश रूप हूँ, अद्वितीय हूँ, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित हूँ, वह व्यक्ति व्यर्थ के विचारों से अपनी रक्षा करता है, पवित्र विचार या ध्यान में अपने को लीन रखता है / मूल प्रवृत्तियों के परिवर्तन का चौथा उपाय शाधन है जो प्रवृत्ति अपने अपरिवर्तित रूप में निन्दनीय कर्मों में प्रकाशित होती है, वह शोधित रूप में प्रकाशित होने पर श्लाघनीय हो जाती है। वास्तव में मूलवृत्ति का शोधन उसका एक प्रकार से मार्गान्तरोकरण है। किसी मन्त्र या मंगलवाक्य का चिन्तन आत्तं और रौद्र ध्यान से हटाकर धर्मध्यान में स्थित करता है। अतः धर्मध्यान के प्रधान कारण णमोकार मन्त्र के स्मरण और चिन्तन को परम आवश्यकता है। उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक विवेचन का अभिप्राय यह है कि णमोकार मन्त्र के द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने मन को प्रभावित कर सकता है। यह मन्त्र मनुष्य के चेतन, अवचेतन और अचेतन-तोनों प्रकार के मनों को प्रभावित कर अचेतन और अवचेतन मन पर सुन्दर स्थायो भाव का ऐसा संस्कार डालता है, जिससे मूल प्रवृत्तियों का परिष्कार हो आता है। अचेतन मन में वासनाओं को अजित होने का अवसर नहीं मिल पाता। इस मन्त्र की आराधना में ऐसी विद्युत शक्ति है जिससे इसके स्मरण से व्यक्ति का अर्न्तद्वन्द्व शान्त हो जाता है, नैतिक भावनाओं का उदय होता है, जिससे अनैतिक वासनाओं का दमन होकर नैतिक संस्कार उत्पन्न होते हैं। आभ्यन्तर में उत्पन्न विद्युत बाहर और भीतर में इतना प्रकाश उत्पन्न करती है जिससे वासनात्मक संस्कार भस्म हो जाते हैं और ज्ञान का प्रकाश व्याप्त हो जाता है। इस मन्त्र के निरन्तर उच्चारण, स्मरण और चिन्तन से आत्मा को एक प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे आज की भाषा में विद्युत कह सकते हैं। इस शक्ति द्वारा आत्मा का शोधन कार्य तो किया ही जाता है, साथ ही इससे अन्य आश्चर्यजनक कार्य भी सम्पन्न किये जा सकते हैं / * * डा० नेमचंद्र शास्त्री कृत 'णमोकार मन्त्र : एक अनुचिन्तन' से संक्षेपित / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org