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जैन- योग का एक महान् ग्रन्थ
ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण
आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री
एम. ए. 'त्रय', पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
ज्ञानार्णव दिगम्बर जैन संप्रदाय के सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी तथा समादृत विद्वान् श्राचार्य शुभचन्द्र की कृति है । जैन योगवाङमय में यह अत्यधिक प्रतिष्ठापन्न है ।
प्राचार्य शुभचन्द्र कब हुए, कहाँ दीक्षित हुए, जीवन किस क्षेत्र में कैसे व्यतीत हुआ इत्यादि ऐतिहासिक तथ्य कुछ भी प्राप्त नहीं हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने अपनी इस महान् कृति में अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा । अपना नाम तक कहीं अंकित नहीं किया । भारतवर्ष के इस कोटि के अनेक तपस्वी विद्वानों, ऋषियों और ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में हमें प्रायः ऐसा ही देखने को मिलता है। एक ओर जहाँ इससे उन तपःपूत महापुरुषों की निःस्पृहता तथा लोकैषणा - शून्यता का प्रत्यन्त उच्च रूप हमें देखने को मिलता है, वहाँ एक पक्ष हानि का भी है, जिसके कारण हम अपने प्राचीन साहित्य-सृष्टाओं की ऐतिहासिक शृंखला ठीक रूप में जोड़ नहीं पाते । आचार्य शुभचन्द्र की काल - गवेषणा में इसी प्रकार की स्थिति है । श्रनुमान, लोक प्रचलित कथानक, जन श्रुति आदि को लेकर ही कुछ परिकल्पना करनी पड़ती है । आचार्य शुभचन्द्र के पूर्ववर्ती काल के संबंध में उन्हीं के ग्रन्थ में संकेत प्राप्त होते हैं । उन्होंने मंगलाचरण में प्राचार्य समन्तभद्र आचार्य देवनन्दी "पूज्यपाद", श्राचार्य जिनसेन तथा आचार्य कलंक के प्रति निम्नांकित शब्दों में आदर दिखाया है, नमस्कार किया है—
"आचार्य समन्तभद्र आदि कवीश्वर रूपी सूर्यों की मियाँ जहाँ संस्फुरित होती हैं, वहाँ ज्ञानलव- ज्ञान के जुगनुत्रों की तरह क्या हास्यास्पद नहीं होते ?
श्रमल, निर्दोष, उत्तम, उक्ति रूपी अल्पतम अंश से उद्धत - गर्वित पुरुष
"जिनके वचन प्राणियों के शरीर, वाणी तथा मन में उत्पन्न होने वाले कलंक दोष को अपाकृत करते हैं - मिटा देते हैं, ऐसे श्राचार्य देवनन्दी को मैं नमस्कार करता हूँ ।
" त्रैविद्य न्याय, व्याकरण और सिद्धान्त के वेत्ताओं द्वारा जो वंदित है, जिसका श्राश्रय लेकर योगीजन आत्मा के निश्चय - आत्मा ही सत्य, शाश्वत एवं चिरन्तन है, एतत् रूप चिन्तन में स्खलित – विचलित नहीं होते, आचार्य जिनसेन की वह वाणी जयशील हो ।
"जो अनेकान्त रूपी आकाश में चन्द्र- ज्योत्स्ना के समान देदीप्यमान है, ज्ञान- वैभव के स्वामी ग्राचार्य अकलंक की पुनीत वाणी हमें पवित्र बनाए, हमारी रक्षा करे । १"
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१. समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मयः ।
ब्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ॥
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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