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ज्ञान प्राप्ति की आगमिक एवं आधुनिक विधियों का तुलनात्मक समीक्षण २१९
किया जावे, तो इसके भी ६x१२ = ७२ भेद होंगे। इस प्रकार सम्पूर्ण भेद ३३६ + ७२ %D४०८ हो जाते हैं । अकर ने मतिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के रूप में चार भेद और गिनाये है। ये स्वरूपगत भेद हैं। इनके ४४१२%D४८ प्रकार हुए। इस प्रकार के मतिज्ञान के कुल ४५६ भेद हो जाते हैं। अकलंक को छोड़कर प्रायः
बर और श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने निरुपचरित अर्थावग्रह के ७२ भेद तथा स्वरूप विषयक ४८ भेद नहीं गिनाये हैं और आगमिक परम्परानुसार ३३६ भेदों को ही वर्णित किया है। संधवी ने बताया है कि आगमों में मतिज्ञान के भेदों का विवरण स्थूल रूप में ही दिया गया है। वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है कि अव्यक्तता एवं दुर्जेयता के कारण शास्त्रों में निरुपचरित अर्थावग्रह आदि के भेद नहीं दिये गये हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि विषयों की विविधता तथा ज्ञानोत्पादी साधनों की अगणितता के आधार पर मतिज्ञान के असंख्य भेद किये जा सकते हैं।
सारणी २: मतिज्ञान के भेद-प्रभेद
मतिक्षान
उत्पादक साधन
स्वरूप
स्पर्शन रसना
घ्राण
चक्षु
श्रोत्र मन
द्रव्य
क्षेत्र
काल
भाव
1
अवग्रह
अवाय धारणा
व्यंजनावग्रह (४)
अर्थावग्रह (२)
१२ भेद (बहु आदि) मतिमान :मान प्राप्ति को प्रक्रिया के पांच वरण
जैन शास्त्रों के अनुसार, किसी भी वस्तु के विषय में समुचित ज्ञान प्राप्त करने के लिये पांच चरण होते है(i) दर्शन, (ii) अवग्रह, (ii) ईहा, (iv) अवाय, (v) धारणा । यह स्पष्ट है कि सामान्य ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है । अतः दर्शन ज्ञान प्राप्ति-प्रक्रिया का प्रथम चरण है । यह पद आगमिक और दार्शनक युग में विभिन्न रूपों में परिभाषित हुआ है। यद्यपि दार्शनिक परिभाषा को स्थूल कहा गया है, फिर भी यही हमारे लिये सर्वाधिक उपयोगी है। इसके अनुसार, इन्द्रिय और अर्थ के प्रथम सम्पर्क के समय जो निराकार, सामान्य सत्तावनाही, "कुछ है' के समान अवलोकन होता है, उसे दर्शन कहते हैं । तत्काल जन्मे बालक के आँख खोलते ही होने वाले प्रथम अक्लोकन के समान वस्तु-विशेष की अग्राही, सामान्य वस्तुमात्रग्राही प्रक्रिया दर्शन है। यह प्रक्रिया न संशयात्मक है, न विपर्ययात्मक है और न अकिंचितकर ही है। यह मिथ्याज्ञान नहीं है, पर यह सम्यग ज्ञान भी नहीं है। इसमें वस्तु की आकारादि विशेषताओं का बोध नहीं होता । अतः दर्शन में ज्ञानात्मकता नहीं है, फिर भी इसे ज्ञान का बीज तो माना ही जा सकता है । इसी आधार पर इसमें ज्ञानात्मकता उपचारतः ही स्वीकृत है। यही कारण है कि अकलंक के अनुसार, दर्शन मीमांसकों के 'आलोचना ज्ञान' या बौद्धों के
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