________________
जैव विद्याओं में ज्ञान का सिद्धान्त-२
ज्ञान प्राप्ति की आगमिक एवं आधुनिक विधियों का तुलनात्मक समीक्षण
डा० एन० एल० जैन
जैन केन्द्र, रीवा (म०प्र० )
ज्ञान प्राप्ति को विधि
जैन शास्त्रों में ज्ञान के संबंध में 'जाणदि' और 'पस्सदि' शब्दों का प्रयोग आया है । टाटिया ने बताया है कि ज्ञान मंथन के प्रारंभिक काल में इन दोनों क्रियाओं में विशेष अंतर नहीं माना जाता था क्योंकि ये प्रायः सम-सामयिक थीं। बाद में यह अनुभव हुआ कि इंद्रियों की क्रियायें मनोजन्य ज्ञान से पूर्ववर्ती होती हैं । इसलिये भौतिक जगत् के ज्ञान के लिये 'पस्सदि' या इंद्रियजन्य क्रियायें अधिक महत्वपूर्ण हो गईं। इन इंद्रियों को दर्शन या स्पर्शन की प्राकृतिक शक्ति नियत होती है, अनंत नहीं । शक्ति को आधुनिक युग में विभिन्न प्रकार के उपकरणों की सहायता से दस लाख गुना तक बढ़ाया जा सकता | इन इंद्रियों से दो प्रकार से ज्ञान प्राप्त किया जाता है : (१) स्वाधिगम विधि और ( २ ) पराधिगम विधि | प्रथम विधि प्रमाण और नय रूप से पदार्थों का ज्ञान कराती है। पराधिगम विधि शास्त्र, आगम या परोपदेश से ज्ञान कराती है । यह श्रुतज्ञान का ही रूप है । वस्तुतः नय भी वचनात्मक श्रुत का ही रूप है । यह प्रमाण का एक घटक है क्योंकि प्रमाण वस्तु को समग्र अंशों में जानता है । विभिन्न नयों के आधार पर प्राप्त ज्ञान को संश्लेषित कर प्रमाण उसे समग्रता देता है । नय विधि वस्तु के लक्षण, प्रकृति, अवस्था आदि गुणों का सापेक्ष निरूपण शब्द, से करती है । यह प्रमाण से भिन्न होती है पर उसका एक अंश होने के कारण वह प्रमाण स्वरूप मानी जाती है । कुछ तार्किक प्रमाण और नय में अंश और अंशी के आधार पर अभेद मानते हैं पर अकलंक और विद्यानंद -- दोनों ने इसका खंडन किया है । जहाँ प्रमाण सम्यक् अनेकांत है, वहीं नय सम्यक् एकांत है । जहाँ प्रमाण सामान्यविशेषावबोधक होता है, वहाँ नय विशेषावबोधक होता हैं । जहाँ प्रमाण विधि प्रतिषेधात्मक रूप से वस्तु को ग्रहण करता है, वहाँ नय उसे धर्मसापेक्ष के रूप से ग्रहण करता । निरपेक्षता नय का दूषण है, सापेक्षता उसका भूषण है । अनेकान्त प्रमाण का प्रहरी उसमें समग्रता लाता है नय लौकिक स्वरूप का बोध
अर्थ और उपचार
| नयवाद विचारों में उदारता प्रेरित करता है, प्रमाणवाद करता है और प्रमाण उसके सर्वांगीण अलौकिक स्वरूप का अवगम कराता है ।
स्वाधिगम विधि को प्रयोग विधि भी कह सकते है क्योंकि इसमें स्वयं ही अनेक प्रकार के वाह्य और अन्तरंग निमित्त से दर्शन ( निरीक्षण या स्वानुभूति) या प्रयोग करने पड़ते हैं । इसके विपर्यास में पराधिगम विधि परकृत प्रग्रोग एवं निष्कर्ष के आधार पर ही प्रतिष्ठित रहती है ।
किसी भी वस्तु के विषय में, उपरोक्त किसी भी विधि से ज्ञान क्यों न किया जावे, वह विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत ही किया जाता है । उमास्वाति ने इन कोटियों की गणना दो रूपों में प्रदर्शित की है— छह और आठ ( सारणी १) । इन्हें अनुयोगद्वार या अधिगम द्वार कहा जाता है। दोनों ही रूपों में परिभाषिक शब्दावलो कुछ भिन्न प्रतीत होती है। पर उनके अर्थों में पुनरुक्ति प्रतीत होती है । इसीलिये पूज्यपाद ने कहा है कि ये विभिन्न रूप जिज्ञासुओं की योग्यता एवं
२८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org