________________ पीठ है। वहाँ आचार्य विश्वेश्वर शर्मा थे। स्वयं साथ में घम कर विद्यापीठ की अनेक प्रवृतियाँ दिखलाई, उनकी जानकारी दी। मैंने उनसे कहा, विद्यापीठ की महत्वपूर्ण चीज हमें दिखलाइए। तो वे पुस्तकालय दिखाते हुए एक कक्षा में हमें ले गए। जहाँ दर्शन-शास्त्र के उच्चकोटि के अध्ययन की व्यवस्था थी। विद्यार्थी दर्शन-शास्त्र का उच्च अध्यन इस कक्षा में कर रहे थे। विश्वेश्वर शर्मा ने बताया कि यह कक्षा गुरुकुल का प्राण है। दर्शन-शास्त्र के गम्भीर ग्रन्थों का यहाँ पर अध्ययन, चिन्तन एवं मनन किया जाता है। दर्शन-शास्त्र के अभ्यासी विद्यार्थीयों के बीच पहुँच कर मैं भी बहुत प्रसन्न हुआ। विद्यार्थी खडे हो गए, आचार्य विश्वेश्वर शर्मा बोले-कुछ पूछिए विद्यार्थीयों से? मैंने उन विद्यार्थीयों से एक छोटा - सा प्रश्न किया, कि मेरे स्नेही विद्यार्थीयो! आपने इस गुरुकुल में किसलिए प्रवेश किया है? आपका यहाँ रहने का उद्देश्य क्या है? थोडी सी देर सन्नाटा सा छाया रहा, फिर एक विद्यार्थी का हाथ उठा। मैंने उसे कहने की अनुमति है, तो वह बोला यहाँ हम ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए है। पंने विद्यार्थीयों से पूछा-क्या गुरुकुल में ज्ञान का उत्पादन होता है? या ज्ञान का कोई खजाना दबा पडा है? इस भाँति यदि आप ज्ञान प्राप्त करके लेते जाएँगे, यहाँ के विद्वानों का सब ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, तो फिर यहाँ का ज्ञान तो कुछ ही दिनों में ही समाप्त नहीं हो जाएगा? सभा में सन्नाटा छा गया। वास्तव में विद्यार्थी का उत्तर पूर्णत: गलत नहीं था, सामान्यत: यही उत्तर होता है। पर जहाँ दर्शन-शास्त्र का विद्यापीठ है, दर्शन की उच्चतम शिक्षा दी जाती है, वहाँ दर्शन-शास्त्र की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थीयों का यह उत्तर-"ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए है" गलत है। मैंने कहा यदि इस प्रकार आप ज्ञान लेते जाएँगे, तो गुरुकुल के गुरुओं के ज्ञान का तो दिवाला निकाल देंगे। विश्वेश्वर शर्मा बोले आप बहुत दूर की बात पर चले गए। मैंने कहा, नहीं मैं तो निकट आ रहा हैं। आखिर मैंने ही अपने प्रश्न का उत्तर दिया, बात यह है, कि ज्ञान प्राप्त करने जैसी चीज नहीं है। ज्ञान तो तुम्हारा स्वरुप है, आत्मा का लक्षण है-"ज्ञानाधिकरणो आत्मा" ज्ञान का अधिष्ठाता आत्मा ही है। "जीवो उवओगो लक्खणो' कहने वाले आचार्यों ने ज्ञान को तुम्हारे से दूर नहीं माना है, तुम्हारे से भीन्न वस्तु नहीं मानी है, वह तुम्हारी ही वस्तु है और तुम्हारे भीतर ही है। ज्ञान आत्मा का गुण है, उसे तो सिर्फ प्रकट करने की आवश्यकता है, जगाने की जरुरत है। भारतीय-दर्शन ने कहा है-"आत्मा ज्ञानवान है" फिर एक छलांग लगाई कि ज्ञान स्वरुप आत्मा है। और उससे भी आगे बढकर कहा है-"ज्ञान ही आत्मा है।" ज्ञान आत्मा में ही है, उसे केवल जगाने की जरुरत होती है। दियासलाई पर मसाला लगाया हुआ है। उसे सिर्फ एक रगड, संघर्ष की जरुरत होती है। बस उस संघर्षण के लिए ही विद्यालय, या गुरुकुल में प्रवेश किया जाता है। वास्तव में ज्ञान आत्मा से भिन्न वस्तु नहीं है, वह आत्मा में ही है, उसे जगाने की जरुरत है, प्रकट करने की आवश्यकता है। और जितनी साधनाएँ एवं आत्माभिमुखी प्रवृत्तियाँ है, वे सब उस ज्ञान की ज्योति को प्रकट करने का निमित्त है, साधन है। इस ज्ञान के साथ जीवन में साधना का भी महत्व है, उसे हमें भूलना नहीं है। अत: साधना के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ साधना दोनों के माध्यम से परिपूर्णता, आत्मा की सार्वभौम विशुद्ध ज्योति का अनावृत्त करना है। 196 विद्या और शक्ति का सही उपयोग करने से ही संसार-मार्ग कल्याण एवं मंगल कारक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org