________________ 140 सागरमल जैन पश्चात् की रचनाएँ हैं। दूसरे यदि जैन परम्परा में प्राचीन काल से स्तूप-निर्माण एवं स्तुप-पूजा की पद्धति होती तो फिर मथुरा के अन्यत्र भी कहीं जैन स्तूप उपलब्ध होते, किन्तु मथुरा के अतिरिक्त कहीं भी जैन स्तूपों के पुरातात्त्विक अवशेष उपलब्ध नहीं होते' / जैनधर्म के यापनीयसंघ की एक शाखा का नाम पंचस्तूपान्वय था। सम्भव है मथुरा के पंचस्तूपों की उपासना के कारण इसका यह नाम पड़ा हो / मथुरा यापनीय संघ का केन्द्र रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि जैनों में स्तूपपूजा की पद्धति थी। मथुरा के एक शिलाखण्ड के बीच में स्तूप का अंकन है और उसके आसपास जिन-प्रतिमायें हैं, इससे भी हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि जैनों में कुछ काल तक स्तूप निर्माण और स्तुप-पूजा प्रचलित थी। वैशाली में मनिसुव्रतस्वामी के स्तप का साहित्यिक संकेत है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी बौद्ध स्तुप और उनके अवशेष मिलते हैं। एक प्रश्न यह भी है यदि जैन धर्म में स्तूप-निर्माण एवं स्तूप-पूजा की परम्परा रही थी तो फिर वह एकदम कैसे विलुप्त हो गयी ? यह सत्य है कि जहाँ बौद्ध परम्परा में बुद्ध के बाद शताब्दियों तक प्रतीकपूजा के रूप में स्तूप-पूजा प्रचलित रही और बुद्ध की मूर्तियाँ बाद में बनने लगीं। जब कि जैन परम्परा में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से जिन मूर्तियाँ बनने लग गयीं। अतः जैनों में स्तूप बनने की प्रवृत्ति आगे अधिक विकसित नहीं हो सकी। यह तर्क कि मथुरा का स्तूप मूलतः बौद्ध स्तूप था और परवर्तीकाल में बौद्धों के निर्बल होने से उस पर जैनों ने अधिकार कर लिया, युक्तिसंगत नहीं लगता, क्योंकि ईसा की प्रथमद्वितीय शताब्दी से ही इसके जैन-स्तूप के रूप में उल्लेख मिलने लगते हैं और उस काल तक मथुरा के बौद्ध निर्बल नहीं हुए थे, अपितु शक्तिशाली एवं प्रभावशाली बने हुए थे। पुनः मथुरा से उपलब्ध आयागपटों पर मध्य में जिन-प्रतिमा और उसके आस-पास अष्टमांगलिक चिह्नों के साथ स्तूप का भी अंकन मिलता है। इससे यह पुष्ट हो जाता है कि जैनों में स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा की परम्परा का अस्तित्व रहा है / यापनीय नामक प्रसिद्ध जैन संघ की एक शाखा का नाम भी पंचस्तूपान्वय है। यदि ये प्रमाण नहीं मिलते तो निश्चित ही इसे मूलतः बौद्ध स्तूप स्वीकार किया जा सकता था। मैंने यहाँ पक्ष-विपक्ष की सम्भावनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, विद्वानों को किसी योग्य निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर भी इस समग्र अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुँचा हूँ कि जैन धर्म में स्तूपनिर्माण एवं स्तूपपूजा की पद्धति जैनेतर परम्पराओं से विशेष रूप से बौद्ध परम्परा के प्रभाव से ही विकसित हुई: पूनः वह चरण-चौकी (पगलिया जी), चैत्य-स्तम्भ, मान-स्तम्भ और जिन-मन्दिरों के विकास के साथ धीरे-धीरे विलप्त हो गई है। निदेशक, पा० वि० शोध संस्थान, आई. टी. आई. रोड, वाराणसी-५. 1. प्रो० टी० वी० जी० शास्त्री ने गन्तुर जिले के अमरावती से करीब ७किलोमीटर दूर बडुमाण गाँव में ईसा पूर्व तृतीय शताब्दो ( 236 ई० पू० ) का जैनस्तूप खोज निकाला है। यहीं भद्रबाहु के शिष्य गोदास-जिनका नाम कल्पसूत्र पट्टावली में है-के उल्लेख से युक्त शिलालेख भी मिला है। -दि० जैन महासमिति बुलेटिन, मार्च 1985 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org