________________
जैनागम में भारतीय शिक्षा के मूल्य
पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के दुष्परिणाम -
हमारे देश को स्वतंत्र हुए अर्द्धशताब्दी व्यतीत हो चुकी है और सन् १६६७ में हमने आजादी की स्वर्ण जयन्ती मनाई थी। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि इतने वर्षों के बाद भी हमने भारतीय शिक्षा के जो जीवन-मूल्य हैं उनको हमारी शिक्षा-पद्धति में विनियोजित नहीं किया । हम लोगों ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को ही अपनाया । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर देश में शिक्षा संस्थाओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिनमें करोडों बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, वही जीवन - उत्थान के संस्कार हमारे ऋषियों, तीर्थकरों एवं आचार्यों ने जो प्रदान किये थे, वे आज भी हम हमारे बच्चों को नहीं दे पा रहे हैं। एक विचारक ने ठीक ही कहा है- “वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली न “भारतीय” है और न ही वास्तविक “शिक्षा”। भारतीय परंपरा के अनुसार शिक्षा मात्र सूचनाओं का भंडार नहीं है, शिक्षा चरित्र का निर्माण, जीवन-मूल्यों का निर्माण है। डॉ. अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के संदर्भ में लिखा है- “ प्राचीन भारत में शिक्षा अन्तज्योति और शक्ति का स्रोत मानी जाती थी, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों के संतुलित
जैनागमों में शिक्षा के श्रेष्ठ सूत्र व्याख्यायित है। शिक्षा मनुष्य के जीवन में उच्च संस्कारों की स्थापना करने में सक्षम होनी चाहिये। सम्यक शिक्षा मनुष्य को न केवल भौतिक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कराती है परंतु उसकी आंतरिक शक्ति का भी विकास करती है । शिक्षा के द्वारा मनुष्य के जीवन में विनय, विवेक, चरित्रशीलता व करुणा आदि गुणों का विकास होना चाहिये। जैनागमों के आधार पर भारतीय शिक्षा के मूल्यों की व्याख्या कर रहे हैं जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, चेन्नई के सचिव श्री दुलीचन्द जैन ।
- सम्पादक
१. प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति डॉ. अनंत सदाशिव अल्तेकर
-
जैनागम में भारतीय शिक्षा के मूल्य
जैन संस्कृति का आलोक
Jain Education International
→ दुलीचन्द जैन " साहित्यरत्न"
विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती और उसे श्रेष्ठ बनाती है । इस प्रकार शिक्षा हमें इस योग्य बनाती है कि हम एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें । " स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक समितियों एवं शिक्षा आयोगों ने भी इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया और इस बात पर जोर दिया कि हमारे राष्ट्र के जो सनातन जीवन मूल्य हैं, वे हमारी शिक्षा पद्धति में लागू होने ही चाहिए । सन् १६६४ से १६६६ तक डॉ. दौलतसिंह कोठारी - जो एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे, की अध्यक्षता में 'कोठारी आयोग' का गठन हुआ । इसने अपने प्रतिवेदन में कहा- “केन्द्रीय व प्रान्तीय सरकारों को नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रबन्ध अपने अधीनस्थ संस्थाओं में करना चाहिये ।” सन् १६७५ में एन.सी.ई.आर.टी. ने अपने प्रतिवेदन में कहा- “विद्यालय पाठ्यक्रम की संरचना इस ढंग से की जाए कि चरित्र निर्माण शिक्षा का एक प्रमुख उद्धेश्य बने । " हमारे स्थायी जीवन मूल्य
For Private & Personal Use Only
हमारे संविधान में “धर्म-निरपेक्षता” को हमारी नीति का एक अंग माना है । “धर्म निरपेक्षता " शब्द भ्रामक है क्योंकि भारतीय परंपरा के अनुसार हम “धर्म” से निरपेक्ष
१८३
www.jainelibrary.org