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जैन श्रमण : वेशभूषा एक तात्विक विवेचन | ३८५
वह खण्डित होता है । वास्तव में सिद्धान्त या आदर्श तभी अपने आप में परिपूर्ण है, जब उसमें विकल्पों या अपवादों का यथेच्छा स्वीकार न हो। क्योंकि यदि विकल्पों और अपवादों को बहुत अधिक मान्यता दी जायेगी तो सम्भव है, एक दिन ऐसा आ जाए, जब आदर्श या सिद्धान्त के स्थान पर केवल विकल्पों और अपवादों का पुंज ही रह जाए। जैन श्रमणों में पाद-विहार की परम्परा आज तक समीचीन रूप में प्रचलित है। हजारों में एक आध अपवाद हो सकता है पर अपवाद स्वीकार करने वाला व्यक्ति श्रमण-संघ में स्थान पाने योग्य नहीं रहता ।
पैरों की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत प्राचीनकाल से पाद- रक्षिका, पादत्राण या उपानह के नाम से जूतों का स्वीकार रहा है । संन्यासियों के लिए जूते वर्जित रहे हैं । वैदिक परम्परा में काष्ठ-पादुका स्वीकृत है । जैनों और बौद्धों में उसका भी स्वीकार नहीं है। बदलते हुए युग के परिवेश में आज जैन-परम्परा के श्रमणों के सिवाय प्रायः सभी ने वस्त्र, कैनवस, रबर, प्लास्टिक, नाइलोन आदि के पादत्राण स्वीकार कर लिए हैं। केवल जैन श्रमण संघ ही ऐसा रह गया है, जिसमें आज भी किसी प्रकार के जूते का, खड़ाऊ, चप्पल आदि का स्वीकार नहीं है। यहाँ तक कि मौजे भी वे प्रयोग में नहीं लेते ।
आयुर्वेदिक दृष्टिकोण
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नंगे पैर चलने में भूमि का पैरों के साथ सीधा संस्पर्श होता है। स्नायविक दृष्टि से सारा शरीर परस्पर सम्बद्ध है। पैरों को जिस प्रकार का संस्पर्श मिलता है, तद्गत ऊष्मा, शैत्य सारे देह में स्नायविक ग्राहकता के अनुरूप पहुँच जाते हैं । इसके दो प्रकार के परिणाम आते हैं। यदि जलती भूमि पर चला जाता है तो भूमिगत उष्णता पगथलियों के माध्यम से देह में पहुँचती है, जिसकी अधिकता देह के लिए हानिप्रद है । प्रातःकालीन शीतल रेत पर नंगे पैर चलना अनेक पैत्तिक व ऊष्माजनित रोगों के निवारण की दृष्टि से उपयोगी है। नेत्रों में जलन, हाथ-पैरों में जलन, जिनका हेतु देह में पित्त विकार की वृद्धि है, इससे शान्त हो जाती है। नेत्र शक्ति बढ़ती है, मस्तिष्क में स्फूर्ति का संचार होता है। जैन मुनियों का पाद-विहार का कार्यक्रम अधिकांशतः प्रातःकाल ही होता है, जिससे यह लाभ उन्हें अनायास ही प्राप्त होता रहता है। दिन में वे अध्ययन, लेखन, सत्संग आदि कार्यों में रहते हैं अतः अधिक ऊष्मा, जिससे कई प्रकार के उपद्रव होने आशंकित हैं, से सहज ही बच जाते हैं ।
अपरिग्रह एवं तप की भावना
श्रमण के लिए जितनी अनिवार्य रूप से आवश्यक वस्तुओं अर्थात् संयम जीवन के लिए उपयोगी बाह्यउपकरणों का निर्धारण किया गया है, उसमें यह दृष्टि बिन्दु भी रहा है कि उसका तपस्वी जीवन उद्भावित होता रहे । उसके पीछे अपरिग्रह की भावना सन्निहित है। सुविधा या अनुकूलता से विलग रहते हुए श्रमण अधिकाधिक आत्माभिरत रह सके, ऐसा भाव उसके पीछे है । पादत्राण या पादरक्षिका श्रमण के लिए अनिवार्य उपकरणों में नहीं आती । यदि सुविधा का दृष्टिकोण न रहे तो पादरक्षिका के लिए वह चिन्तन ही नहीं कर सकता । हाँ, इसमें कुछ दैहिक कष्ट अवश्य है, जो श्रमण के लिए गौण है। इस कष्ट संज्ञा की सार्थकता दैहिक अनुकूलता के साथ जुड़ी हुई है । दैहिक अनुकूलता इसमें से निकल जाय तो कष्ट तपस्या की भूमिका में चला जाता है । अन्यान्य संन्यासी परम्पराओं में पादत्राण का अस्वीकार लगभग इसी कारण रहा है । वह जो विच्छिन्न हुआ, उसका कारण स्पष्ट ही सुविधा या अनुकूलता की ओर झुकाव है । जैन श्रमण जो अब तक उसी निष्पाद त्राणतामय उपकरण व्यवस्था में चले आ रहे हैं, उसका कारण बाह्य सुविधाओं का अनाकर्षण और अपनी अध्यात्म-साधना में सतत संलग्न रहने का भाव है, जो उनकी उन्नत मनोभूमिका का द्योतक है। यह अ-युगीन कहा जा सकता है। पर, यह अ-युगीनता की चिन्तनधारा संयमात्मक भावना से अनुप्राणित नहीं है । केवल अपनी अनुकूलता या सुविधा पर टिकी हुई है ।
मुखवस्त्रिका : एक विश्लेषण
श्रमण की वेशभूषा में मुखयस्त्रिका का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। दार्शनिक दृष्टि से मुखवस्त्रिका स्वीकार के पीछे यह आशय है कि बोलते समय ध्वनि की टक्कर से या आहट से जो वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है, श्रमण उससे बचता रहे ।
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