________________
इस सरल पथगमनकी प्रकृतिका भी शास्त्रोंमें उल्लेख नहीं मिलता। इस प्रकार छाया, अन्धकारके विपरित प्रकाशका एक प्रभाव है, स्वयं प्रकाश नहीं ।
मुनि महेन्द्र कुमार द्वितीयने बताया है कि पदार्थोंके वर्णकी अनुभूति एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें वस्तु और ज्ञाता-दोनों सम्मिलित होते हैं। शास्त्रोंमें वर्णित पंचव)की बात काफी स्थुल लगती है क्योंकि इन्द्रधनुष में ही सात रंग होते हैं। यदि मौलिक वर्गों की बात की जाय, तो रामनके मूलभूत अन्वेषणसे तीन ही मौलिक वर्ण प्रकट होते हैं। इस प्रकार अन्धकार, छाया और वर्ण सम्बन्धी आगमयुगीन मान्यतायें अपनी समीचीनता बनाये रखनेके लिये पुनः परीक्षणकी अपेक्षा रखती है । इस प्रकार, ऊष्मा और प्रकाशके सम्बन्धमें हमें आजकी तुलनामें पर्याप्त अल्प सूचनायें ही मिलती हैं। फिर भी, इनका स्फुट संकलन भी आगम युगकी महान् देन है । इससे उनके प्रकृति-निरीक्षण सामर्थ्य और बोद्धिक विचारणाकी तीक्ष्णताका पता चलता है। ये संकलन या विचार आजके युगमें कैसे भी क्यों न हों, अपने युगमें तो उत्तम कोटिके रहे हैं क्योंकि ऐसा विवरण अन्य दर्शनोंमें नहीं पाया जाता। विद्युत् और चुम्बकत्व
ऊष्मा, प्रकाश और ध्वनिकी तुलनामें शास्त्रोंमें विद्यत और चुम्बकीय ऊर्जाओंके विषयमें उपलब्ध विवरण और भी अल्प हैं । शास्त्रोंमें विद्युत् उल्का, अशनिके रूपमें विद्यतका उल्लेख है, पर वस्तुतः ये सभी विद्यतके उत्पादक है, विद्युत नहीं। विद्युत् तो अतिगतिशील इलेक्ट्रान प्रवाहको कहा जाता है । यह सही है कि यह कणमय रही है। पर अब इसे भी तरंगणिक प्रमाणित कर दिया गया है। विद्यतको स्निग्ध-रुक्षके समान विरोधी गुणोंके सम्पर्कसे उत्पन्न मानना जैन दार्शनिकोंकी ईसापूर्व सदियोंमें बड़ी सूक्ष्म कल्पना है जिसे वैज्ञानिक अठारहवीं सदी में ही खोज सके। शास्त्रों में विद्यतको तेजस्कायिकोंके रूपमें माननेके कारण सजीव माना गया है। इसकी गतिके ऊष्मा भी इसे सजीवता देती है, पर यह मत विज्ञानको मान्य नहीं है । जीवनके जन्म, वृद्धि, पुनर्जनन व विनाशके लक्षण इसमें नहीं पाये जाते । शास्त्रोंमें प्रकाशके ऊष्मा या विद्युतमें रूपान्तरणकी बात आई है पर विद्यतके ऊष्मामें रूपान्तरणका कोई उदाहरण नहीं है। सम्भवतः उस युगमें चालक और रोधक पदार्थों के सम्बन्धमें दष्टि नहीं गई, अतः यह विषय छूट ही गया । आज हम जानते हैं कि विद्युतके ऊष्णीय रूपान्तरण हमारे लिये कितने उपयोगी है।
चुम्बकत्वके विषयमें तो केवल अयस्कान्तका नाम आता है। शास्त्रोंमें इसे ऊर्जाका रूप ही नहीं माना जाता (हाँ, इसके लोहेके आकर्षण गुणोंको अप्राप्यकारिताका साधक मानकर इससे चक्षुके आप्राप्यकारित्व गणका संपोषण अवश्य किया गया है ) शास्त्रोंमें केवल एक ही प्राकृतिक चम्बकका नाम है । इसके विपर्यासमें, अब चुम्बकत्व एक ऊर्जा है जो तरंगणी होती है। इसके चारों ओर बलरेखायें रहती हैं जो वस्तुओंको आकर्षित करती हैं। आवृत वस्तुओंमें से बलरेखायें पार नहीं हो पातीं, अतः वे आकृष्ट नहीं हो पातीं। यह गुण कुछ वस्तु ओंमें उनकी विशिष्ट अणरचना और विन्यासके कारण पाया जाता है । कुछ वस्तुओंमें यह गण कृत्रिमतः भी उत्पन्न किया जा सकता है। अपनी चक्षषा अगोचर बल-रेखाओंके से ही अयस्कान्त लोहेको आकर्षित करता है। अतः अयस्कान्तको अप्राप्यकारी ग्राहक नहीं माना जा सकता। इसे चक्षुके समान ही परोक्ष प्राप्यकारी या ईषत् प्राप्यकारी मानना चाहिये।
विद्युत् और चुम्बकत्व तथा उससे सम्बन्धित घटनाओंकी शास्त्रोंमें अल्प विवरणिका इस तथ्यका संकेत है कि आगम या शास्त्रीय युगमें इन ऊर्जाओंका कोई विशेष उपयोग अन्वेषित नहीं था । प्राकृतिक रूपमें पाये जानेके कारण केवल इनके स्थूल गुणोंका ही अवलोकन किया गया था।
ध्वनि-जैन, सिद्धान्तशास्त्री, सिकदर, मेहता और रामपुरिया आदिने ध्वनिके सम्बन्धमें जैन
- ४६६ -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org