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द्विविधा तरंगणी होती है । इनकी ऊर्जा प्राकृतिक होती है, किसी अदृश्य शक्तिके कारण नहीं । तरंगात्मक दृष्टिसे ऊष्माका तरंगदैर्ध्य रक्तप्रकाशसे बृहत्तर होता है । ऊष्माके विभिन्न कार्य आज भी मान्य हैं । पर ऊष्माका संप्रसारण अब संचालनके अतिरिक्त दो अन्य विधियोंसे विकरण और संवाहनसे भी माना जाता है । शास्त्रोंमें प्रावस्था परिवर्तन और ऊष्माके यांत्रिक कार्योंमें परिवर्तित होनेकी चर्चा नहीं है । ये प्रकरण उन्नीसवीं सदीकी वैज्ञानिक प्रगति की ही देन हैं । उष्माको जीवनका लक्षण मानना एक समस्या उत्पन्न करता है क्योंकि जगतके प्रत्येक तंत्रमें प्रकृत्या ही कुछ न कुछ ऊष्मीय ऊर्जा होती है । इस दृष्टिसे संसार के सभी पदार्थ, चाहे वे जड़ 'या चेतन, सजीव ही माने जाने चाहिये । वस्तुतः उत्तराध्ययनमें यह बताया गया है कि पृथ्वी, जल आदि प्राकृतिक रूपमें शस्त्र अनुपहत होते हैं और सजीव होते हैं । विक्षोभ या उपघात इन्हें निर्जीव बनाता है । मूलतः प्रत्येक पदार्थके सजीव माननेकी इस धारणासे क्या यह अर्थ लिया जाय कि जगतमें जीव और अजीवकी धारणाका विकास उत्तर आगमकालमें हुआ है ? पदार्थोंके मूलतः सजीव होनेकी धारणा जैन दर्शनको वेदान्तका ही एक अंग बना देती ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसपर गम्भीर एवं शोधपूर्ण अध्ययनकी आवश्यकता है ।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी यहाँ समाधानकी अपेक्षा रखता है । जीवाभिगमसूत्र में तेजस - कायिकको कोटि में माना गया है जबकि उमास्वातिने इसे स्थावर माना है । तेजसकायिकोंका स्थावरीकरण कब और कैसे हुआ, यह भी एक विचारणीय बात है । प्रारम्भ में, गतिशीलोंको त्रस मान कर वायु, तेज (ऊष्मा, प्रकाश आदि) को इस कोटिमें रखा गखा गया हो । लेकिन जब कर्मवादका विकास हुआ, तब " " की परिभाषामें कुछ संशोधन किया गया प्रतीत होता है। इससे क्या यह समझा जाय कि जीवाभिगम सूत्र के समय कर्मवाद विकसित नहीं था और शब्दोंका सामान्य अर्थ लिया जाता था ?
दशवैकालिकमें तेजसकायिकोंके सात भेद गिनाये गये हैं जबकि प्रज्ञापनामें सूक्ष्म तेजसकायिकों के अतिरिक्त स्थूल तेजसकायिकों के बारह भेद बताये गये हैं । [ सारणी - २ ] इनमें अग्निकी ज्वाला, मुर्मुर, सारणी - २ . तेजस्कायिकोंके भेद
दशवेकालिक
२. अग्नि या ज्वाला
३. मुर्मुर
४. अच
प्रज्ञापना
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१. विद्युत्
२. अशनि
३. निर्घात
४. संघर्ष
५. सूर्यकान्त
७. भेद [दश०]
अंगार, आलात, अर्चि, संघर्षज ऊष्माओंसे सामान्य जन परिचित हैं । शुद्ध अग्निको ईंधन रहित अग्नि के रूपमें माना जाता है । यह वैद्युत भट्ठी, पिघला हुआ लोहपिंड आदिमें देखा जाता है । उल्का, विद्युत् एवं अशनि-ये विद्युतके रूप हैं और सूर्यकान्त या मणियोंके माध्यमसे उत्पन्न ऊष्मा प्रकाशका एक प्रभाव है जिसमें प्रकाश ऊष्मामें परिवर्तित होता है । निर्धात विक्रिया जन्य अग्नि है । तैजस्कायिकों के इस वर्गीकरणसे पता चलता है कि शास्त्रीय कालमें ऊष्मा, प्रकाश और विद्युत एक ही कोटि - तेजस्कायिकके माने जाते थे और इनकी प्रकृति कणमय मानी जाती थी । यह भी यहाँ दृष्टव्य है कि उपरोक्त सभी रूपोंमें मूल कुछ भी हो, ऊष्मागुण इन सभीमें पाया जाता है । अतः इन ऊर्जाओंकी प्रकृतिमें मौलिक भेद होने के
५. अलात
६. शुद्ध अग्नि
७. उल्का
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