________________ थे। जैनधर्मकी परम्पराके प्रवर्तक जिन चौबीस तीर्थंकरोंका वर्णन मिलता है, उससे निश्चित है कि सभी तीर्थंकर क्षत्रिय थे। केवल तीर्थंकर ही नहीं, समस्त शलाका पुरुष क्षत्रिय कहे जाते हैं। प्रत्येक कल्पकालमें तिरेसठ शलाका के पुरुष होते हैं / इसी प्रकार जैनधर्मके परिपालक अनेक चक्रवर्ती महाराजा हुए। जहाँ महाराजा बिम्बिसार (श्रेणिक ), सम्राट चन्द्रगुप्त, पगधनरेश सम्प्रति, कलिंगनरेश खारबेल, महाराजा आषाढ़सेन, अविनीत गंग, दुविनीत गंग, गंगनरेश मारसिंह, वीरमार्तण्ड चामुण्डराय, महारानी कुन्दब्बे, सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम, कोलुत्तुग चोल, साहसतुंग, त्रैलोक्यमल्ल, आह्वमल्ल, बोप्पदेव कदम्ब, सेनापति गंगराज, महारानी भीमादेवी, दण्डनायक बोप्प और राजा सुहेल आदिने भी इस धर्मका प्रचार व प्रसार आकृष्ट होकर जैनधर्मावलम्बी हुए / मूलसंघके अनुयायी ब्रह्मसेन बहुत बड़े विद्वान् तथा तपस्वी थे। 'सन्मतिसूत्र' तथा 'द्वात्रिंशिकाओं' के रचयिता सिद्धसेन ब्राह्मणकूलमें उत्पन्न हए थे जो आगे चलकर प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए। वत्सगोत्री ब्रह्मशिवने सम्पूर्ण भारतीय दर्शनोंका तुलनात्मक अध्ययन कर 'समयपरीक्षा' ग्रन्थकी रचना की जो बारहवीं शताब्दीकी रचना है। भारद्वाज गोत्रीय आचण्ण 'वर्द्धमानपुराण'के रचयिता बारहवीं शताब्दीके कवि थे। दसवीं शताब्दीके अपभ्रंशके प्रसिद्ध कवि धवलका जन्म भी विप्रकुलमें हुआ था। कुतीर्थ और कुधर्मसे चित्त विरक्त होनेपर उन्होंने जैनधर्मका आश्रय लिया और 'हरिवंशपुराण' की रचना की। दिगम्बर परम्पराके प्रसिद्ध आचार्य कर्नाटकदेशीय पूज्यपादका जन्म भी ब्राह्मणकूल में हुआ था / इस प्रकारसे अनेक विप्र साधकोंने वस्तु-स्वरूपका ज्ञान कर जैन साधना-पद्धतिको अंगीकार किया था / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org