________________ 306 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ भी मत खरीदो। परनिन्दा, काम-कुचेष्टा शस्त्र-संग्रह आदि मत करो। 8. व्यवसाय के क्षेत्र में नाप तौल में अप्रमाणिकता मत रखो और 15. यथासम्भव अतिथियों की, संतजनों की, पीड़ित एवं असहाय वस्तुओं में मिलावट मत करो। व्यक्तियों की सेवा करो। अन्न, वस्त्र, आवास, औषधि आदि राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचन के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। मत करो। 16. क्रोध मत करो, सबसे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करो। 10. अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो। परस्त्री-संसर्ग, 17. अहंकार मत करो अपितु विनीत बनो, दूसरों का आदर वेश्यावृत्ति एवं वेश्यावृत्ति के द्वारा धन-अर्जन मत करो। करो। 11. अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करो और उसे लोकहितार्थ व्यय 18. कपटपूर्ण व्यवहार मत करो वरन् व्यवहार में निश्छल एवं करो। प्रामाणिक रहो। 12. अपने व्यवसाय के क्षेत्र को सीमित करो और वर्जित व्यवसाय 19. अविचारपूर्वक कार्य मत करो। मत करो। 20. तृष्णा मत रखो। 13. अपनी उपभोग सामग्री की मर्यादा करो और उसका अति-संग्रह उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम ऐसे हैं जो जैन मत करो। नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते हैं।२९ आवश्यकता इस 14. वे सभी कार्य मत करो, जिनसे तुम्हारा कोई हित नहीं होता। बात की है हम आधुनिक संदर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें है किन्तु दूसरों का अहित सम्भव हो अर्थात् अनावश्यक गपशप, तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें। सन्दर्भ : 1. जैनधर्म का प्राण, पं० सुखलालजी, सस्ता साहित्य मण्डल, देहली, पृ० 56-59 2. अमरभारती, अप्रैल 1966, पृ० 21 3. उत्तराध्ययन, 31/2 4. सर्वोदय दर्शन, आमुख, पृ० 6 पर उद्धृत / प्रश्नव्याकरणसूत्र 2/1/22 5. प्रश्नव्याकरण 1/1/21 7. वही, 1/1/3 8. वही, 1/2/22 9. सूत्रकृतांग (टीका) 1/6/4 10. योगबिन्दु, आचार्य हरिभद्र, 285-288 11. योगबिन्दु 289 12. योगबिन्दु 290 13. निशीथचूर्णि, सं० अमरमुनि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, भाष्य गा०, 2860 14. स्थानांग, 10/760 15. उद्धृत, आत्मसाधना संग्रह, पृ० 441 16. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 5, पृ० 697 17. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 5, पृ० 697 18. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृष्ठ 3-4 19. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० 2 20. जैन प्रकाश, 8 अप्रैल 1969, पृ० 1 21. देखिए- श्रावक के बारह व्रत, उनके अतिचार और मार्गानुसारी गुण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org