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जैनधर्म : स्वरूप एवं उपादेयता
महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर [सुख्यात तत्त्वचिन्तक तथा यशस्वी कवि,
लेखक एवं प्रवचनकार
"जैन" शब्द की निष्पत्ति “जिन" से है। "जिन" का तात्पर्य उन महापुरुषों से है, जिन्होंने अपने असीम आत्मबल को उद्बुद्ध कर राग तथा द्वष आदि को जीता । उन जिनों द्वारा जो अनुभूत सत्य प्रकट हुआ, जो आचार-दर्शन प्रसृत हुआ, वही जिन-शासन है, जैनधर्म है । "जिनशासन" शब्द अपनेआप में बड़ी गुण-निष्पन्नता लिए हुए है । साम्प्रदायिक संकीर्णता के भाव से यह सर्वथा अतीत है। रागद्वेष आदि अनात्मभावों के विजय को केन्द्र में रखकर जैन चिन्तनधारा तथा आचार-परम्परा का विकास दया है। यह एक ऐसा राजमार्ग है, जो व्यक्ति-मुक्ति से लेकर समाज-मक्ति तक प्रशस्त रूप में जाता है। जैनत्व वास्तव में एक व्यसन-मुक्त, अहिंसक और स्वस्थ-समाज की रचना का जीवन्त तरीका है। यह परम श्रेय के प्रति समर्पित एक नैतिक अनुष्ठान है।
ऐतिहासिकता की दृष्टि से जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन है । कुछ समय पूर्व आधुनिक इतिहासज्ञ भगवान महावीर को जैनधर्म का आविर्भावक मानते रहे थे, किन्तु अब ज्यों-ज्यों समीक्षात्मक, तुलनात्मक अध्ययन का विकास होता जा रहा है, विद्वानों की मान्यताएँ परिवर्तित होती जा रही हैं। भगवान पार्श्वनाथ जो जैन-परम्परा के तेईसवें तीर्थकर थे तथा बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि जो कर्मयोगी कृष्ण के चचेरे भाई थे, ऐतिहासिक पटल पर लगभग स्वीकृत हो चुके हैं। इतना ही नहीं ऋग्वेद, भागवत आदि में प्राप्त वर्तमान अवसर्पिणी कालखण्ड के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ की ऐतिहासिकता भी उजागर हो रही है। जैन वाङमय तथा वैदिक वाङमय में भगवान् ऋषभ के व्यक्तित्व का जैसा निरूपण हुआ है, वह बहलांशतया सादृश्य लिये हुए है । ऐतिहासिक खोज ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगी, अनेक अपरिज्ञात तथ्य और प्रकाश में आते जायेंगे, ऐसी आशा है।
जैन दर्शन व्यक्तित्व-निर्माण में जिन महत्वपूर्ण उपादानों को स्वीकार करता है, उनमें पूर्वाजित संस्कारों का अत्यन्त महत्व है । उच्च संस्कार प्राप्त व्यक्तियों की एक विशिष्ट परम्परा स्वीकृत रही है। वैसे पुरुष “शलाका-पुरुष" कहे जाते हैं । शलाका-पुरुष का आशय उन व्यक्तियों से है, जो अपने पराक्रम, ओज, तेज, वैभव तथा शक्तिमत्ता के कारण असाधारणता लिये होते हैं । वे त्रेसठ माने गये हैं-२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ह वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव तथा ६ बलदेव । इनमें चौबीस तीर्थंकर धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से चरम प्रकर्ष के प्रतीक हैं तथा उनके अतिरिक्त ३६ लौकिक वैभव, ऐश्वर्य, शक्ति
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