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जैन धर्म में श्रमणियों की गौरवमयी परम्परा / १४५
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धर्म तीर्थ स्थापक तीर्थंकरों ने धर्म को धारण करने वाले श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका किसी को कम या अधिक नहीं । यह सुव्यवस्था केवल
को समान रूप से महत्त्व दिया है। जैनदर्शन में ही देखने में आती है ।
श्रमणीवर्ग ने सदा ही समाज में व्याप्त विकृतियों पर स्पष्ट इंगित किये हैं और मानवीय पक्ष को जीवंत रखा है। श्रमणी वर्ग ने समाज को संजीवनी प्रदान की है, यदि ऐसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
श्रमणियों को लेकर साध्वी की वंदनीयता का प्रश्न भी उठा है। धर्मदास गणिरचित उपदेशमाला में कहा गया है
"महासती चन्दनबाला ने जैसे सद्यः प्रवजित मुनि को जो सम्मान दिया, अभ्युत्थान और नमन किया वैसे ही हर श्रमणी को करना चाहिए।" और वही परम्परा चली था रही है। पर सद्यः दीक्षित मुनि को भी दीक्षापर्याय व ज्ञान में बड़ी साध्वी द्वारा नमन आज के युग में कुछ अजीब सा लगता है। कहीं-कहीं इसे नये रूप से चिन्तन करने की बात उठी है। ज्ञानगुणसम्पन्न का मान होना ही चाहिए। कहा नहीं जा सकता यह प्रवृत्ति कब और कैसे प्रवेश कर गई। समाज में पुरुष की प्रधानता शायद इसका कारण रही हो। आगमों तक में इसी कारण पुरुष की ज्येष्ठता दर्शायी गयी है।
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जैन आगम स्थानांगसूत्र में दस कल्पों में 'पुरिसजेट्ठे' का उल्लेख है। यद्यपि इस कथन कुछ लोग प्रक्षिप्त मान रहे हैं। मांग है कि आगम की सही व्याख्या हो ।
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यह तो नहीं कहा जा सकता है कि धमणियों की श्रेष्ठता की घोर किसी का ध्यान नहीं है पर अभी भी ऐसी क्रांतिकारी दृष्टि का उदय नहीं हुआ है कि संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन का कोई बहुत बड़ा कदम उठाया जा सके। निरन्तर प्रयास किए जाएं तो इस सन्दर्भ में कुछ आशाजनक परिणाम श्रा सकते हैं ।
आज भी जैन साध्वी संघ उन्नत और सशक्त है । वह दूर-दूर तक पदयात्राएं कर धर्मप्रचार में उद्यत है। क्या उत्तर क्या दक्षिण, क्या पूर्व, क्या पश्चिम, साध्वी समुदाय ने सब ओर अपने यायावरी कदम बढ़ाये हैं। उन्होंने धर्म की अलख जगाई है।
श्रमणीवर्ग एक तरह से जूझ रहा है। अथक प्रयास समाज की जागृति के हो रहे हैं। विशेषकर नारीसमुदाय पर श्रमणियों का व्यापक प्रभाव है । परिवार की धुरी नारी की जागृति यदि सही ढंग से हो सके तो बड़ा कल्याण होगा ।
श्रमणियों ने इस भ्रम को तोड़ा है कि स्त्री साध्यिका पूर्वश्रुत का अध्ययन नहीं कर सकती। उसे मनः पर्यवज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती या उसे विशिष्ट योगज विभूतियाँ प्राप्त नहीं होतीं । यह सब चिन्तनीय एवं खोज का विषय है। नारी को आचार्य नहीं तो प्रवर्तनी जैसा पद सौंपा जाए तो उसमें भी निःसंदेह वह संघसेवा में सफलता प्राप्त कर सकेगी। कहा जाता है कि साध्वी चौदह पूर्वो का अध्ययन इसलिए नहीं कर सकती कि उसकी प्रविधियां या प्रक्रियाएं उसकी शरीरिक स्थिति के कारण संभव नहीं। पर यहाँ यह सोचना चाहिए कि वे तथ्य उसे ज्ञात तो हैं। जो ज्ञात हैं उसकी व्याख्या करने में भला कौन सी बाधा है ?
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धम्मो ਬਰਸੀ ਟੀ
दीवो
संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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